धोबी घाट -सामान्य अर्थ में एक ऐसी जगह जहाँ धोबी कपडे धोता है, और वृहद अर्थ में -एक ऐसी जगह जहा नीले -पीले ,गुलाबी और न जाने कितने ही रंग निखरते है, संवरते है ; एक ऐसी जगह जहाँ जब कपडा आता है तब वह मेला- कुचेला होता है और यहाँ आकर स्वच्छ- निर्मल हो जाता है । यानि ऐसी जगह जहाँ गंदगी धुल जाती है ,मिट जाती है ,बह जाती है ऐसा ही कुछ कहने का प्रयास करती है- निर्देशक किरण राव और निर्माता आमिर खान की फिल्म धोबी घाट ।
फिल्म का नाम धोबी घाट होने का मतलब यह नहीं है की फिल्म धोबियो की कहानी है ;फिल्म कहानी है मुंबई की सोच की ,मुंबई के हालात की ,प्यार के कशमकश की ,चार अलग अलग व्यक्तियों के जीवन की और उसमे बसी समानताओ की । इसलिए फिल्म का पूरा नाम धोबी घाट (मुंबई डायरीज़) है ।
फिल्म में मुन्ना ( प्रतिक बब्बर ) एक धोबी है जो मूलतः बिहार का रहने वाला है । शाय ( मोनिका डोंगरा) एक बैंकर है और शोकिया तोर पर फोटो ग्राफर भी ;वह अमेरिका में काम करती है और एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में मुंबई आती है । अरुण ( आमिर खान ) एक पेंटर है जो अकेला रहना पसंद करता है और यस्मिन (कृति मल्होत्रा ) उ.प.की एक सीधी -साधी घरेलु लड़की है जिसकी शादी मुंबई में हुई है । फिल्म के यह चारो किरदार अलग-अलग तरीके से एक दुसरे को प्रभावित करते है और मनोवैज्ञानिक ढंग से फिल्म में नए नए मोड़ आते चले जाते है 95 मिनिट की यह फिल्म मुम्बईया जिन्दगी और उसके सच की कलई खोलने का पूरा प्रयास करती है ।
फिल्म दो अलग अलग वर्जन में रिलीज़ हुई है । मुख्य वर्जन में अंग्रेजी भाषा का प्रयोग ज्यादा हुआ है और दुसरे वर्जन में अंग्रेजी भाषा के डायलाग को भी हिंदी में रूपांतरित किया गया है । फिल्म के डायलाग अर्थपूर्ण और किरदार के अनुसार ढले हुए है । कैमरा वर्क जानदार है और प्रतीकात्मक भी ;सिनेमेटोग्राफी शानदार तरीके से की गयी है । पटकथा कसी हुयी है और निर्देशन उम्दा । बस फिल्म का प्रस्तुति करण थोडा प्रयोगात्मक है जैसे फिल्म की शुरवात में ही हेंडी- केमेरा का प्रयोग और एक आवाज जिसका कोई परिचय नहीं है । इसी प्रकार एक द्रश्य में मुन्ना का लाठी लेकर जाना और सीन का वही पर बदल जाना, परन्तु यह सभी द्रश्य फिल्म के आगे बड़ने पर संतुलित हो जाते है और इनके अर्थ भी स्पष्ट हो जाते है ।
धोबी घाट एक प्रयोग है, कला फिल्मो की सार्थकता और मानवीय संवेदनाओ की प्रस्तुति का । इसलिए इस फिल्म में न तो बालीवुड के लटके झटके है ,न आंसू से सराबोर फेमेली ड्रामा और न ही हंसती गुदगुदाती कॉमेडी ; इस फिल्म में एक तथ्य है ,एक शहर है , एक जिन्दगी है और कई नजरिये है जो दर्शको के दिमाग को बहुत सा मसाला देते है मानसिक जुगाली के लिए
मुख्य धरा से हट कर किरण राव और आमिर खान ने एक सराहनीय प्रयास किया है ,अब यह देखना दिलचस्प होगा की आम जनता क्या माइंड लैस सिनेमा और पैसा वसूल कॉमेडी से अलग हटकर इस नयी सोच को स्वीकार कर पाती है ? ..............................................आपके सुझाव के इंतजार में लकुलीश शर्मा