Sunday, December 26, 2010

तीस मार खान को झेल पाना "आसन काम" नहीं


कहा जाता है की इस दुनिया में किसी को रुलाना बहुत आसान है परन्तु किसी को हंसा पाना बहुत मुश्किल,अगर आप तीस मार खान देख रहे है ये कहावत कुछ ऐसी हो जाती है कि यहाँ हँसना मुश्किल है और रोना तो लगभग ना मुमकिन । हां टिकिट पर खर्च किये गए पैसे को याद करके शायद आपके आंसू निकल आये ।

फराह खान द्वारा निर्देशित और शिरीष कुंदर ,टिवंकल खन्ना ,रोनी स्क्रूवाला द्वारा निर्मित '' तीस मार खान '' पूरी तरह से दर्शको की सब्र का इम्तिहान है । फिल्म में कहानी है एक चौर की जो बड़ा विख्यात है और जिसके पीछे पूरी पुलिस फौर्स पड़ी है । वह एक चौरी का कांट्रेक्ट लेता है और आखिर में चोरी कर लेता है । इस कांसेप्ट में डाले जाते है कुछ उलजलूल डायलाग , द्विअर्थी कॉमेडी और सेक्स का भौंडापन बस बन जाती है फिल्म तीस मार खान|
फिल्म में लाजिक तो है ही नहीं मनोरंजन के नाम पर भी कुछ नहीं है| ढाई घंटे की इस फिल्म से ज्यादा हंसी और मनोरंजन तो आधे घंटे के कॉमेडी सर्कस और लाफ्टर शो में हासिल किया जा सकता है । फिल्म में आधे से ज्यादा कार्य तो शिरीष कुंदर ने किये है- निर्माता ,बेग्राउण्ड स्कोर ,संपादन, स्टोरी, स्क्रिप्ट सब कुछ कुंदर के ही भरोसे है जो की पूरी तरह प्रभाव हीन प्रस्तुति है ।

संगीत निर्देशक विशाल -शेखर है और डांस की कमान फरहा खान और गीता कपूर के हाथ में है । शीला की जवानी के लटको को छोड़ कर संगीत और डांस की प्रस्तुति सामान्य ही है । अभिनय के नाम पर किसी अभिनेता के पर ऊँगली नहीं उठाई जा सकती क्योकि निर्देशक फरहा खान ने जिस तरह का अभिनय प्रस्तुत करवाना चाहा है हर कलाकार ने खुद को उसी रूप में प्रस्तुत किया है । इस कार्य के लिए अक्षय कुमार ,अक्षय खन्ना , और सपोर्टिंग रोल में अमन वर्मा बधाई के पात्र है । कटरीना पूरी फिल्म में खूबसूरत दिखी है पर उसे अभिनय करने का कोई मोका ही नहीं दिया गया । बाकि पूरी फिल्म में कहने -सुनाने के लिए कुछ नहीं है । न तो निर्देशन की खासियत ,न संपादन की कसावट और न ही कहानी की गति| हाँ परन्तु मार्केटिंग के नजरिये से यह बात सिखने योग्य है की कैसे "शीला की जवानी" के बल पर दर्शको को थियेटर हाल तक खीचा जा सकता है । आखिर में फिल्म के तीस मार खान यानि अक्षय कुमार के अंदाज में कहा जा सकता है की

"सूरज को सीधे देख पाना और तीस मार खान को झेल पाना आसान नहीं है "

आपके सुझाव का इंतज़ार रहेगा ......................लकुलीश शर्मा

Saturday, December 4, 2010

"खेले हम जी जान से "


खेले हम जी जान से यानि आशुतोष गोवारिकर एक बार फिर हाज़िर है फिल्म जगत में अपनी पारी खेलने को । अभिषेक बच्चन , सिकंदर खेर ,दीपिका पादुकोण जैसे स्टार से सजी यह फिल्म एक सत्य घटना पर आधारित फिल्म है | फिल्म का आधार है १९३० का चटगांव ( वर्त्तमान बंगलादेश ) विद्रोह पर |
फिल्म में सुरज्या सेन की भूमिका में है अभिषेक बच्चन ,कल्पना दत्त की भूमिका में है दीपिका पादुकोण ,सिकंदर खेर निर्मल सेन के रोल में है । इस के अलावा मनिंदर (अनंत ) विशाखा सिंह (प्रीतिलता ) के किरदार में है । फिल्म की कहानी की शुरवात होती है १९३० के परिवेश से जहा चटगांव के कुछ साहसी व्यक्ति आज़ादी के लिए क्रांति की योजना बना रहे है| तब उनकी क्रांति में कुछ बच्चे भी हिस्सा लेना चाहते है जिनके खेल का मैदान अंग्रेजो ने छीन लिया है । उनका दल(इंडियन रिपब्लिक आर्मी ) यह तय करता है , की १८ अप्रेल १९३० को वह चटगांव से अंगेजी राज्य का खत्म कर आजादी का आगाज़ करेंगे । पूरी फिल्म इस फैसले और इसके बाद की कार्यवाही पर चलती है । सबसे पहले आशुतोष गोवारिकर बधाई के पात्र है जिन्होंने इस तरह की सत्य घटना पर( जो की लगभग उपेक्षित है) फिल्म बनाने का प्रयास किया । फिल्म का कांसेप्ट बहुत शानदार है परन्तु इस कांसेप्ट से बनी पटकथा उतनी उम्दा नहीं जितनी की अपेक्षा की जा सकती थी |फिल्म का सबसे कमजोर पक्ष है उसकी अच्छाइयो और श्रेष्ठता को निर्देशन द्वारा न भुना पाना । अगर निर्देशक ''लगान'' वाला हो तब उम्मीदे और बड जाती है ऐसे में आशुतोष गोवारिकर ने निर्देशक और पटकथा लेखक के तौर पर सही नहीं उतर पाए । फिल्म अच्छी है पर इसे सर्वश्रेष्ठ बनाया जा सकता था ।

इस फिल्म की खामियों में द्रश्यो का उबाऊ होना , सीन का बेवजह लम्बा होना ,दिलीप दिओ द्वारा ख़राब संपादन और संवादों(डायलाग ) का बेअसर होना माना जा सकता है । वही फिल्म की अच्छाइयो में फिल्म का संगीत ,उसकी मूल कथा और देश -भक्ति की भावना को रखा जा सकता है |

अभिनय के तराजू पर सभी कलाकारों का प्रदर्शन ठीक ठाक है । यहाँ पर फिरोज वाहिद खान (फिल्म में लोकनाथ बाल) का उल्लेख आवश्यक है । फिरोज ने कुछ द्रश्यो में शानदार स्वाभाविक अभिनय किया है । गीत -संगीत पक्ष अच्छा है जिसके लिए जावेद अख्तर और सोहेल सेन बधाई के पात्र है ।

फिल्म के लिए आखिर में यही कहा जा सकता है की काफी वर्षो बाद भारतीय स्वतंत्रा संग्राम की सत्य घटना को लेकर कोई फिल्म आई है जिसे देखना हमारी उन शहीदों के प्रति आदरांजलि है जिन्होंने सोलह वर्ष की आयु में ही अपने प्राणों का त्याग माँ भारती के लिए कर दिया । फिल्म में भले ही मनोरंजन ,इमोशन और प्रभाव की कमी हो परन्तु उन गुमनाम देशभक्तों का चित्रण करने के लिए आशुतोष गोवारिकर को इतना पारितोष तो दिया ही जाना चाहिए |

आपकी प्रतिक्रियाओ का इंतजार रहेगा ............लकुलीश शर्मा