Wednesday, December 7, 2011

वाय थिस कोलावारी दी


मेरा एक दोस्त अचानक मुझसे बोलने  लगा की दादा (प्यार से मुझ से छोटे दोस्त मुझे दादा कहते है  पर में कही से भी दादा नहीं लगता ) आप इस गाने को कैसे  पसंद कर सकते हो जो की पूरी तरह से बेसिर पैर का है |. उसकी बात एक तरह से सही भी थी, मै अक्सर आपने दोस्तों के बीच एक अच्छा समीक्षक बनने की कोशिश करता रहता था(पता नहीं मेरा यह गुमान कब जायेगा या फिर शायद सच में किसी दिन बन जाऊ ) और आज में ही एक ऐसे गाने की तारीफ कर रहा था जो एक समीक्षक के नज़रिए से पूरी तरह से भाषा के व्याकरण की ऐसी तेसी करने वाला होना चाहिए |  पर यहाँ मै दिमाग से नही बल्कि दिल से सोच रहा था | मेरे दिल को ये गाना पसंद था और .घर आकर मैंने इस बात पर दिमाग को भी लगा दिया की आखिर इस गाने में ऐसा क्या है जो लोगो को अपनी तरफ अट्रेक्ट कर रहा है |  बहुत सोचने के बाद मैंने  यह पाया की ये  एक ऐसी अभिव्यक्ति है जो बचकानी है ,टूटी फूटी है ,सुसंस्कृत नही है और अंग्रेजी की ग्रामर का इतना भलता (अटपटा ) इस्तेमाल पर फिर भी इस गाने में एक बचपना है, मासूमियत है, भोलापन है , भाषा के बंधन से आजाद केवल भावनाए है जो संगीत के माध्यम में बह रही है| यह बिलकुल वैसा  है जेसे एक छोटे बच्चे की अजीब सी बोली जो मन को भा जाती है जिसके लिए उसका व्याकरण सम्मत न होना ही उसकी खूबी है  और यह खूबी  ही कोलावारी दी को इतना खास बना रही है |

इसके अलावा एक बात और है जिसने कोलावारी दी को "ड कोलावारी दी " बनाया  है और वह बात है कुछ नया स्वीकार करने  की हमारी प्रवत्ति |  हमेशा ५६ भोग खाने वाले के लिए खिचड़ी से बढ़िया व्यंजन  कोई और नहीं हो सकता | कभी कभी हम जानते है की जो हम कर रहे है वो सही नहीं है पर उस वक़्त वही करना अच्छा लगता है क्योंकी हमारे हाजमे की उस वक़्त की  मांग वही है|   यही हाल कोलावारी दी का भी है वो दाल, चावल, टमाटर, प्याज़, आलू , और मटर से सजी मसालेदार खिचड़ी है जो किसी के भी मुह में पानी ला देने के लिए काफी है | इस स्वाद पर कोई तर्क भारी नहीं पड़ सकता | .कभी..हिमेश रेशमिया ,अल्ताफ राजा के गानों पर भी इसी तरह का उन्माद दिखा था  वो अब बासी खिचड़ी है यह ताज़ी ताज़ी गरमारम खिचड़ी है  पर हां यह बात भी याद रखना पड़ेगी की खिचड़ी सिर्फ गर्म ही अच्छी लगती है तो थोड़े दिन जब तक माहोल गर्म है तब तक दिमाग  को साइड में रखकर गाते है | why this kolavari kolavari kolavari di ...why this kolavari kolavari di........धी धिन धिन..................आपकी प्रतिक्रियाओ के इंतजार में |

Saturday, September 3, 2011

ज्वलंत मुद्दों को उठाती फिल्म "बोल"


"बोल"  ,एक  कहानी  जो  साहस  है  औरत  का  , आइना  है पाकिस्तानी  हालात  का , और  एक मौका  है  यह  सोचने  का की  क्या  कत्ल करना  ही  गुनाह  है पैदा  करना नहीं  .पाकिस्तानी डायरेक्टर  शोएब  मंसूर   के  बेहतरीन  निर्देशन  से  सजी  ये  फिल्म  अपने  साथ  कई  मुद्दे  उठाती  है . 

यह  कहानी है जानिब  (हुमेमा  मालिक ) और उसके  परिवार  की जिसमे  7 बहने  और एक नपुंसक  भाई   है .जानिब के अब्बा   हाकिम  नवाबुदुला  (मंजर  सहबाई ) पुस्तेनी  राजवैध  है जो की शरणार्थी  के टूर  पर  दिल्ली   से आकर  कराची  में  बस  गए  .कहनी  की शुरुवात  होती  है जानिब  की फांसी से जहा  मुस्तफा (आतिफ  असलम  ) जानिब को  ये समझाता  है की उसे  अपनी  बात  एक बार  तो  कहना   चाहिए  और जानिब अपनी फांसी पर एक प्रेस  कांफ्रेंस  करने  की इज्ज़ाज़त मांगती  है.प्रेस कांफ्रेंस में जानिब बताती  है कि केसे  हालत  ने  उससे कातिल  बनाया  .वो  ढेर  सरे  सवालो  का पुलिंदा  छोडती  है दर्शक के ज़ेहन में  कि आखिर  क्यों  हम  धर्म  के नाम  पर ,इज्ज़त  के नाम पर और झूटी  शान  के नाम पर खुद  को और अपने घर  को बर्बाद  कर  लेते  है .

फिल्म कि पटकथा में कसावट है | गीतों में ताजगी है संगीत औसत श्रेणी का है और अभिनय वास्तविकता को लिए हुए पर तकनिकी तौर पर फिल्म कमज़ोर है.सिनेमेटोग्राफी ठीक कि श्रेणी में रखी जा सकती है. द्रश्यओ में विविधता कि कमी लगती है. 

फिल्म में  मुद्दों  को बहुत  ही लाज़वाब  तरीके  से उठाया  गया  है चाहे  वो मुद्दा  इस्लामिक  कटरपंती  खयालो  का हो  ,बेटे  कि चाहत  का ,मर्सी  किलिंग  का ,या  फिर  आज़ाद  खयालो का  .यह  फिल्म सिर्फ  पाकिस्तान  कि कहानी नही  है  बल्कि  यह हिंदुस्तान  के एक वर्ग  को भी  कटघरे  में खड़ा  करती  है जो बेटे की  लालच  में लडकियों   की लाइन  लगा  देते  है और औरत को सिर्फ बच्चा  जनने की मशीन  बना  देते है .

निर्देशक   शोइब  मंसूर की यह दूसरी  फिल्म है पर इतने  नाज़ुक  मुद्दों को उन्होंने  जिस  सम्वेंदंशिलता  से परोसा  है वो काबिले  तारीफ  है .यह फिल्म एक शानदार  मौका है पाकिस्तान को जानने  का    ,आतंकवाद  से  अलग  हटकर  उसकी  आम  जिंदगी  में  झाँकने  का और  उन  लोगो  को  चुप  करने  का   जो  कहते  है  की  आज  कल  अच्छी फिल्मे  नहीं  बनती  जिनसे  समाज  को दिशा  मिलती  हो  इस  फिल्म  में बुरी  बात  है तो  सिर्फ  एक  की  ये  बोडीगाड के  साथ  रिलीज़  हो गई .और जिस तरह  एक बड़ी  मछली  दूसरी  छोटी  मछली को निगल  जाती  है उसी   तरह एक खेल  तमाशे  की फिल्म एक सार्थक  फिल्म को टिकिट  खिड़की  पर  निगल रही  है .
                        आपके सुझावों के इंतजार में .......... लकुलीश शर्मा ( मात्राओ की गलती के लिए क्षमा करे वो वेब साईट की कुछ दिक्कत है )
  

Saturday, August 13, 2011

आरक्षण -ः जाना था जापान पहुच गए चीन


आरक्षण ये नाम ही चेहरे पर शिकन या मुस्कान लाने के लिए काफी है गर आरक्षण मिलने वाला हो तो मुस्कान और छीनने वाला हो तो शिकन ।

इस सम्वेदनशील मुद्दे को अपनी फिल्म के जरिये परोसने का काम किया है निर्माता निर्देशक प्रकाश झा ने

फिल्म की पृष्टभूमि भोपाल की है जहाॅ शकुंतला ठकराल महाविधालय एक प्रसिद्द महाविधालय है और प्रो. प्रभाकर (अमिताभ बच्चन वहा के प्रसिपल दीपक कुमार ( सेफ अली खान) जो कि हरिजन समुदाय से सम्बध रखता है वहाॅ का गेस्ट लेक्चरार है।पूर्वी प्रभाकर(दीपिका पादुंकोण) और सुशांत सेठ(प्रतिक बब्बर वहाॅ पढते है ।सुश्ंाात,पूर्वी,दीपक तीनो अच्छे दोस्त है।फिल्म का एक मुख्य किरदार मिथलेश सिंह (मनोज वाजपेयी भी वहीं पर पढाता है ।जिसका प्रायवेट कोचिंग इस्टीटुयुट भी है।


फिल्म की शुरुआत होती है इस मुद्दे के साथ कि प्रायवेट कम्पनी में जाति और स्तर के आधार पर चयन किया जाता है।वहीं सरकारी विभाग में कोटे के नाम पर पद बाटें जाते है। इस बात को लेकर सुशंात सेठ और दीपक दोनो को अपनी जिंदगी मे दिक्कतो का सामना करना पडता है ।इस बात के कारण दीपक आरक्षण का समर्थक बन जाता है वहीं सुशंात विरोधी ।इसी वक्त सुप्रीम कोर्ट का एक आदेश पारित होता है जिसमे 27 प्रतिशत आरक्षण बढा दिया जाता है इस मुद्दंे पर सुप्रिम कोर्ट का समर्थन करने पर प्रो प्रभाकर (अमिताभ को काॅलेज से निकाल दिया जाता है और उनका धर भी उनसे छीन जाता है। बाकि कि पूरी फिल्म प्रभाकर के आत्मसम्मान और धर वापस पाने की कहानी को बंया करती नजर आती है ।


आरक्षण के साथ -साथ इस फिल्म मे शिक्षा के व्यवसायिकरण पर भी जोर दिया गया है और यह जोर इतना है कि फिल्म के 45 मिनिट बीत जाने पर फिल्म आरक्षण बनाम अनारक्षण से हटकर प्रायवेट कोचिंग बनाम सही शिक्षा व्यवस्था पर केन्द्रीत हो जाती है।

फिल्म के सशक्त पहलु में अमिताभ बच्चन सेफ अली खान और दीपिका की एक्टींग और डायलाॅग को रखा जा सकता है वही फिल्म की एडिटिंग सिनेमेटोग्राफी और टीªटमेटं कमजोर कडh है।


फिल्म की गति कई द्दश्यो में टुटती नजर आती है।वहीं सिनेमेटोग्राफी ने न तो भोपाल की खुबसुरती को परोसा है और न ही अभिनेता के अभिनय को ।फिल्म के गाने अच्छे बन पडें है और पाश्र्वसगींत ने भी अच्छी भूमिका को निभाया है पर जब गाने स्क्रिन पर दिखाई देते है तो हीरो के होटं से मेल ही नही खाते ।इन सारी बातों को नजरअदांज कर भी दिया जाए तब भी सबसे ज्यादा निराशा इस बात से होती है कि फिल्म का नाम आरक्षण है पर पूरी फिल्म शिक्षाः सेवा या व्यवसाय इस बात पर धुमती है।फिल्म में आरक्षण के मुद्दे को छुआ भर है और कुछ नही ।


प्रकाश झा ने राजनीति में भोपाल को पहले भी दिखाया था पर इस फिल्म मे पूरा परिदृश्य भोपाल केन्द्रीत है ।ऐसे में अचरज की बात है कि किसी अभिनेता के डायलाग में भोपाली टच नही है। इंतहा तो यह है कि तबेलेवाला भी युपी की टोन मे बात करता है। जबकि भोपाल की अपनी एक जबान है तरिका है जो पूरी फिल्म मे कहीं नजर नही आता।


कुल मिलाकर फिल्म मसालेदार है जिसमें सैफ अमिताभ और दीपिका के दमदार अभिनय और डायलाग का तडका है। अच्छे गीत सगींत की मजेदार करी है पर यह मसाला आरक्षण नाम की लुभावनी डिश को मजेदार नही बना पाता है ।फिल्म देख कर ऐसा लगता है कि जाना था जापान पहुच गए चीन।


Saturday, August 6, 2011

ये आफिस जरा देखा- भाला है।


चला मुसद्वी आॅफिस-आॅफिस‘‘ यह शीर्षक फिल्म की पूरी कहानी बंया करने के लिए काफी है क्योकि टी.वी के प्रसिद्व सिरियल आॅफिस- आॅफिस और उसके मुसद्वी( पंकज कपूर ) को कौन नही जानता ।जब नाम से ही फिल्म की कहानी का पता चल जाए तो ऐसे हालाथ में दर्षको को सिनेमा हाॅल के अन्दर आने को मजबुर करना जरा टेड.ी खीर है और इस खीर को पकाने में निर्माता और निर्देषक राजीव मेहरा कुछ खास सफल नजर नही आए।


फिल्म की कहानी सरकारी और गैर सरकारी आॅफिस के भष्टाचार और निकम्मेपन की कलई खोलती नजर आती है धर्मस्थलो पर पडिंतो की लुट है तो अस्पताल में डाक्टरो की हर तरफ सिर्फ आम आदमी ही परेषान है और फिल्म मे यह आम आदमी है मुसद्वीलाल वह अपने दम पर इन सब से लोहा लेता है और आखरी में भष्टाचार के खिलाफ इस लड.ाई मे जीत जाता है ।


फिल्म मे सभी किरदारो का अभिनय लाजवाब है पकंज कपूर , मनोज पहवा, असावरी जोषी ने अपने स्वाभाविक अभिनय से कमाल किया है पर वही देखी हुई कहानी उस पर कमजोर निर्देषन ने पूरे 111 मिनिट तक बोर करने का काम किया है ।फिल्म जब शुरु होती है तब लगता है कि कहानी धीरे धीरे रफ्तार पकडती जाएगी पर यह कहानी तो आखिर तक लोकल टैªन की ही धीमी रहती है।


कुल मिलाकर देखा जाए तो इस फिल्म की कमी इतनी ही है कि इस कहानी को हम पहले से ही जानते है क्योकि एक तो यह , सिरियल आॅफिस- आॅफिस का फिल्मी रिमेक है और दुसरा कारण यह कि भष्टाचार हमारी रग- रग में पहले ही बसा हुआ है जिसे देखने के लिए किसी थियेटर में जाने की आवष्यकता नही ।

Tuesday, July 12, 2011

मर्डर-2 एक औसत प्रस्तुती


एक सस्पेन्ड पुलिस आफिसर जो नशे का धंधा करता है,वसूली करता है,एक हाॅट और सेक्सी माडॅल जिसका काम सिर्फ कम कपडे पहनना है,और एक सनकी हत्यारा जिसके लिए लडकीयों को मारना इतना ही आसान है जितना की सब्जी काटना । इन दो लाइनो की कहानी है फिल्म मर्डर-2 । फिल्म की शुरुआत में एक तड.कता भड.कता गाना और एक रहस्यमय खून। निर्देशक मोहित सूरी और निर्माता महेश भटृ की मर्डर -2 की पहली रील से यह लगता है कि अगले 2 घंटे का सफर रोमाचंकारी रहने वाला है पर यह भरोसा ज्यादा देर तक टिका नही रहता क्योकि कुछ ही समय बाद फिल्म अपनी पकड. खोने लगती है।

फिल्म में सेक्स मसाला और उत्तेजक द्रश्य तो भरपूर डाले जाता है पर इन सब का फिल्म से कोई लेना देना नही है। अगर ये द्रश्य पूरी तरह से हटा दिये जाए तो फिल्म की कहानी में कोइ फर्क नही पडने वाला ।


फिल्म का निर्देशन ठीक -ठाक है पर पटकथा पूरी तरह से ढीली -ढाली है। फिल्म में कुछ द्रश्यो को देखकर निर्देशक (मोहित सुरी ) और पटकथा लेखक (शगुक्ता रफिक ) की समझ पर हॅसी आती है फिल्न्म में हत्यारे का घर ढूढने में अर्जुन(इमरान हाश्मी) को पूरी रात और फिल्म के समय के हिसाब से पुरा 1 घंटा लग जाता है जबकि उसे मालुम है कि हत्यारा किस इलाके में रहता है वह हत्यारे के घर के सामने से गुजर भी चुका है उसका नेटर्वक भी दमदार है पर फिर भी वह बस इघर से उघर घूमे जा रहा है। वह ईश्वर से खफा है पर क्यो ? । हत्यारा ऐसा क्यों है ? उसकी कहानी क्या है? अर्जुन ने पुलिस की नौकरी क्यों छोडी उसकी क्या कहानी है? इन सब सवालो का फिल्म में कोई जवाब नही है।

फिल्म कंे दुसरी खासियत की बात की जाए तो फिल्म का गीत - संगीत पक्ष उम्दा है ै। फिल्म के अच्छे पक्ष में कैमरा टैक्नीक और सिनेमेट्ोग्राफी को लिया जा सकता है ।कुल मिलाकर यही फिल्म की जान है। अभिनय के बारे मे सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि प्रशांत नारायण ने धीरज पांडे के किरदार में जानदार काम किया है ,बाकि इमरान को तो एक ही तरह का अभिनय आता है जो उन्होने यहां भी किया है जिसमें जेकलिन ने भी अपनी मादक अदाओं से पुरी तरह से साथ दिया है।


कुल मिलाकर फिल्म सिर्फ इमरान प्रेमी दर्शको लुभाने का काम करती है बाकि इसे औसत दर्जे का ही प्रस्तुतीकरण कहा जा सकता है । परन्तु मर्डर नाम से इस साधारण कहानी की किस्मत बदल सकती है क्योकि आजकल सिक्वेल का जमाना है। और भीगे होठ तेरे इस गाने का सुरुर अब भी कायम है जो शायद मर्डर-2 की नैया भी पार लगा दे।

Saturday, July 2, 2011

आमिर के प्रयोग क़ी नयी खेप "देल्ही-बेली "





तीन आम शहरी लड.के जो एक साथ रहतें है।रोज सुबह अपने काम पर जाते हैं। पारम्परिक लडको की तरह उनका एक गन्दा सा कमरा होता है। दरवाजा खोलने से लेकर सुबह जल्दी उठकर पानी भरने के लिए काम बाटे जाते है और सारे काम एक दुसरे पर टाले जाते है। यानि आम लडको टाईप जिन्दगी।इस आम जिन्दगी मे एक दिन भुचाल तब आ जाता है जब ये सब डान के चक्कर में फँस जाते है। इस सिचुएशन को खुलेपन और चुटिले अंदाज में पेश किया है निर्माता अमीर खान और निर्देशक अभिनव देव ने अपनी फिल्म देल्ही बेली में |

फिल्म में तोशी(इमरान खान ) अरुप (वीर दास ) नितिन (कुनाल रायॅ कपूर ) तीनो रुम-मेट है।तोशी और नितिन एक न्युज पेपर में काम करतें है वंही अरुप एक एनिमेशन कम्पनी में कार्टुनिस्ट है। सोनिया(शहनाज) तोशी की गर्लफ्रेड. है।वह तोशी को एक पार्सल एक पते तक पहुँचाने को देती है जो उसे उसकी एक दोस्त ने करने को कहा था।तोशी वह पार्सल नितिन को देता है और चुकिं नितिन का पेट खराब हो जाता है इसलिए वह पार्सल अरुप को देता है। अरुप वह पार्सल उसके पते पर डिलिवर कर देता है बस यही पर एक छोटी सी चुक हो जाती है जिसके कारण माफिया और फिर पुलिस इन तीनो दोस्तो के पीछे पड। जाती है।और फिर पूरी फिल्म भाग डिके बोस भाग की लाइनो पर चलती जाती है।

फिल्म का निर्देशन उम्दा है फिल्म की गति कहीं पर भी टुटती नजर नही आती है निर्देशक अभिनव देव ने फिल्म को कहीं भी लीक से हटने नही दिया है ।सिनेमेटोग्राफी ने दिल्ली के माहोल को पुरी तरह जिंदा करने की कोशिश की है कोई भी फ्रेम बेकार की चीजों से लदी दिखाई नही देती । एडिटिंग ने निर्देशन और सिनेमेटोग्राफि की बची कुची कसर पुरी कर दी है।अभिनय के तराजु पर इमरान खान कमजोर दिखे है वहीं विजय राज(डान) और वीर दास का पलड़ा थोडा भारी है बाकि कलाकारो का काम भी औसत की श्रेणी मे रखा जाता है। संगीत पक्ष उम्दा है ,भाग डी के बोस ,चुडैल, स्विटी तेरा प्यार ,नगद वाले डिस्को उधार वाले खिसको जैसे गाने सिचुएशन पर पुरी तरह फिट नजर आते है।

इस पूरी फिल्म की खासियत है इसका प्रस्तुतिकरण, फिल्म के डायलाग में हद से ज्यादा खुलापन है पर ये आज के दौर की वास्तविकता है । हाँ यह कहा जा सकता है कि इस तरह के शब्दो का प्रयोग सिनेमा जैसे विस्तृत माध्यम में किया जाना उचित नही है पर इस बहस पर सबके अपने अपने तर्क हो सकतें है । यंहा पर यह ध्यान रखना जरुरी है कि यह कोई पारिवारिक फिल्म नही है। इसलिए इसे देखना व्यक्तिगत पंसद का विषय है।वैसे भी जिस फिल्म के प्रमोशन में ही अगर निर्माता निर्देशक खुद यह स्वीकार कर रहे हो कि यह फिल्म बच्चे न देखें तब यह तो समझा जा सकता है कि इस फिल्म के विषय और भाषा में कुछ तो गोलमाल है|
आपके सुझाव के इंतजार में ..................................लकुलीश शर्मा

Friday, June 24, 2011

डबल धमाल में कुछ भी डबल नही ।





जब किसी सुपरहिट फिल्म का सिक्वेल बनता है तब दर्शको की उम्मीद बड. जाती है और यही उम्मीद शुरवाती भीड. भी लाती है।पर यदि डबल धमाल जैसे सिक्वेल बनने लगें तो दर्शको की उम्मीद पर घडो से पानी फिर जाता है।

फिल्म डबल धमाल में न तो धमाल जैसी स्क्रीप्ट है, न ही वैसी रियल सिचुएशन और न ही वैसी उम्दा काॅमेडी ।पूरी फिल्म चुहे-बिल्ली का खेल नजर आती है। हर किरदार बस किसी न किसी के पीछे भाग रहा है।इस भागमभाग में न तो कोई सस्पेन्स है और न ही कोई कोई कौतुहल ।पूरी फिल्म में एक बार भी मन में यह विचार नही आता कि अब क्या होने वाला है।अशरद वारसी और जावेद जाफरी का बेजोड अदांज चेहरे पर कुछ हॅसी तो जरुर लाता है पर यह हॅसी किसी लाफ्टर शो के लतीफे जैसी होती है जो कुछ ही देर में गायब हो जाती है।एक्टीगं के नाम पर फिल्म के हर किरदार ने सिर्फ ओवर-एक्टींग ही की है। अशरद वारसी और जावेद जाफरी ही थोड़े संतुलित नजर आतें है

फिल्म की कहानी वहीं से शुरु होती है जहाँ धमाल खत्म हुइ थी ।चारो दोस्त आदि(अशरद वारसी ) बोमन (आशिष चौधरी ) मानव (जावेद जाफरी ) और राॅय(रितेश देशमुख) कड.कें है और अमीर बनने का रास्ता खोज रहे है । उन्हे पता चलता है कि कबीर(संजय दत्त) काफी अमीर बन चुका है तब यह कबीर के पीछे लग जाते है ओर उसे मजबुर करते है कि वो इन्हे अपना पाटनर बना ले ।कबीर इनकी बात मान लेता है और मोका देखकर सारे पैसे लेकर मकाउ भाग जाता है। यह चारो भी मकाउ पहुचॅ जाते है और कबीर को बर्बाद करने की कसम लेते है ।यह कसम कहाँ तक कामयाब होती है बाकि की पुरी फिल्म में यही दिखाया गया है। फिल्म का गीत संगीत पक्ष थोड़ा बेहतर है , जलेबी बाई, ओए ओए और फिल्म का टाइटल ट्रेक डबल धमाल जल्द ही जबान पर चढ. जाते है।

इस फिल्म के अतं मे निर्देशक इंद्रकुमार ने फिल्म के तीसरे भाग की धोषणा अप्रत्यक्ष रुप से तो कर दी है यदि इसी तरह के नए नए सिक्वल बनते रहे तो फिर दर्शको को सावधान होने की जरुरत है क्योकि सिर्फ रेपर अच्छा होने से सामान भी अच्छा हो इस बात की कोइ ग्यारन्टी नही है।इसलिए सौदा जरा ठोक बजाकर किया जाए तो ही बेहतर है।

Friday, June 17, 2011

भेजाफ्राय-2" हर चमकती चीज सोना नही होती।"


2007 में एक छोटे बजट की फिल्म रिलीज हुई जिसमें न तो कोइ बडी स्टार कास्ट थी और न ही कोइ आइटम नम्बर मतलब सफलता के प्रचलित तरिको में से कुछ नही। पर इस फिल्म ने जम के कमाई की और हिन्दी सिनेमा में न्यु लाईन सिनेमा , स्माल वन्डर सिनेमा का जुमले का नया राग छेड.ा जिस पर आज धडाधड फिल्में बन रही है। 2007 की उस फिल्म का नाम था भेजा फ्राय।निर्देशक सागर बल्लेरी और निर्माता मुकुल अरोरा नें कोशिश की है फिर उसी सफलता कों दोहराने की अपनी फिल्म भेजा फ्राय -2 में ।

फिल्म भेजा फ्राय 2 में भारत भूषण (विनय पाठक ) को एक गेम शो जीतनें पर शिप पर जाने का मौका मिलता है ।उस क्रुज पर भारत भूषण के साथ होती है उसका प्यार रंजनी( मनीषा लांबा) टी.वी सिरियल की पुरी टीम और मशहुर उघोगपती अजीत तलवार (के.के.मेनन) जिनकें यहा इन्कमटेक्स की रेड पड.नी होती है ।वह भारत भूषण को रेड के लिए आया इस्पेक्टर समझ कर उसके पीछे लग जाता है बस यहाॅ से शुरु होता है हसँने हसाँनें का सफर जिसमें कुछ मजेदार घटनाएँ हैं , पूराने हिन्दी गानो की गुनगुनाहट है और भारत भूषण का वही पुराना जाना पहचाना अदंाज है।

फिल्म भेजाफ्राय -2,भेजाफ्राय-1 का सिक्वेल जरुर है पर इसमें वो बात नही है जो भेजाफ्राय -1 मे थी ।फिल्म की कई कमजोर कडीयाँ है जैसे फिल्म की शुरुवात बडी उबाउ है जिसमें हर किरदार को स्टेबलिश करने का जरुरत से ज्यादा प्रयास किया है जो अनावश्यक है।फिल्म की स्क्रिप्ट कहीं-कहीं पर लचीली हो जाती है।भेजाफ्राय-1 में जहाँ कामेडी परिस्थितियों से निकल कर आती है वहीं इस फिल्म में कामेडी कुछ परिस्थितियों पर जबरन थोपी हुई लगती है।अभिनय में के.के.मेनन और विनय पाठक को छोडकर कोई भी किरदार प्रमावित करने में सफल नही रहता।गीत संगीत में कोई खास बात नही है।निर्देशन भी औसत दर्जे का है।

इतनी कमजोरीयों कें बावजूद भी फिल्म में मस्ती है ,हँसी-ठहाके है, साफ-सुथरा मनोरंजन है। यानि सिर्फ कामेडी के नजरिये से फिल्म निराश नही करती पर यदि इसकी तुलना भेजाफ्राय-1 से की जाए तो यही बात याद आती है कि हर चमकती चीज सोना नही होती।

Friday, June 10, 2011

हर इसानं में छुपे शैतान की कहानी कहती है फिल्म ‘‘shaitan ‘‘



‘‘बुरे काम का बुरा नतीजा‘‘ ये कहावत बडे -बुजुर्गो ने बडी सोच समझ कर बनाई है। पर ये कहावत सिर्फ कहने से समझ में आ जाए ये जरुरी नही इसीलिए हर कोइ ठोकर खा कर ही सिखता है और इसी ठोकर की कहानी को एक नए अदांज में पिरोया है -निर्माता अनुराग कष्यप और निर्देषक बिजाॅय नाम्बियार ने फिल्म शैतान में।

शैतान कहानी है पाॅच दोस्तो की, जो बिगडे. हुए नौजवान है ।ये नोजवान सिर्फ मस्ती के लिए चैरी करतें है, रात तक शराब, सिगरेट,ड्रग्स में डुबे रहतें है ।पेट और जिस्म दोनो की भूख मिटाते है । उनके लिए दुनियादारी कोइ मायने नही रखती ,नीति नियम कोइ मायने नही रखते।इन सब दोस्तो की निजी जिदंगी की भी कुछ दिक्कते है जिसको भुलने के लिए वो बस अपनी मस्ती मे खोये रहते है । एक दिन पाँचो नषे में रात को एक एक्सिडेन्ट कर देते है जिसमें दो व्यक्तियों की मौत हो जाती है अपनी इस गलती को छुपाने कें लिए वो गलती पर गलती करते और इनके अन्दर का शैतान और उग्र होता जाता है । दोस्ती का मतलब भरोसा बताने वाले ये दोस्त एक -दुसरे पर ही वार करने लगतें है । फिल्म हर इसांन में छिपे डर, गुस्से,कमजोरी , अकेलेपन,और इनसे उपजी हैवानियत को बताती हैै और उसमें छुपे सन्देष को भी सम्प्रेषित करती है ।

फिल्म वैसे तो हर किरदार की अलग कहानी कहती है पर फिल्म का मुख्य किरदार एम्मी(कल्की कोचलिन) रहती है जो फिल्म की भुमिका को भी निभाती है फिल्म में राजीव खन्डेलवाल (आमिर फेम) का भी शानदार रोल है। इसके अलावा बाकि सारे किरदार षिवपडिंत(फिल्म में दुष्यंत साहू उर्फ डेष) नील भोपालम (फिल्म में जुबिंन श्राफ ) किर्ती कुलहारी( तानिया शर्मा) का भी काम अच्छा है।

इस फिल्म की सबसे बडी खुबी इसका धमाकेदार सगंीत और उस संगीत का फिल्म में किया गया खुबसुरती से उपयोग है । प्रषंात पिल्लइ ,रजींत बारोट की जोडी ने कमाल का काम किया और उस कमाल के काम को निर्देषन के जरिये बेहतरीन पकड. दी है बिजाॅय नाम्बियर ने । काला बाजारा फिल्म के प्रसिद्व गाने खोया -खोया चाॅद का जो उपयोग किया है वो अप्रत्यक्ष रुप से बहुत कुछ कह जाता है ।तकनिकी तौर पर फिल्म कही से भी कमजोर नही ,कैमरा मुवमेन्ट का बेहतरीन उपयोग कई बार आपकी पलके नही झपकने देता। फिल्म की कहानी एकदम नयी नवेली नही है पर प्रस्तुतीकरण उसे नया रगं रुप दे दिया है।

अनुराग कष्यप का कहानी कहने का अपना एक तरिका रहा है। भले ही वह फिल्म के निर्माता रहे या निर्देक वह तरिका उनकी फिल्मो में नजर आता है। यह फिल्म भी उसी तरीके की पैदाइष है ।फिल्म में खास तौर पर युवा वर्ग को टारगेट किया है । उन्हे ये फिल्म जरुर पंसद आएगी क्योकि भले ही यह फिल्म का प्रभाव कुछ भी हो यह आपको थियेटर हाल में बोर नही होने देगी इस बात की पूरी ग्यारन्टी है। ................................ आपके सुझावों के इंतजार में लकुलीश

Saturday, April 2, 2011

मज़ेदार नहीं रहा ये "गेम"


आखिर हफ्तों से चल रहा हिंदी फिल्मो का सुखा इस हफ्ते ख़त्म हुआ |बॉक्स - ऑफिस पर फालतू और गेम ने दस्तक दी । अभिनव देव द्वारा निर्देशित और रितेश सिधवानी ;फरहान अख्तर द्वारा निर्मित फिल्म गेम आधारित है एक मर्डर मिस्ट्री पर जिसमे चार अलग -अलग व्यक्ति नील मेनन (अभिषेक बच्चन ) पी . रामसे (बोमन ईरानी ) विक्रम कपूर ( जिम्मी शेरगिल ) तिषा खन्ना ( शाहाना गोस्वामी ) फंसे है। फिल्म की शुरवात कबीर मल्होत्रा (अनुपम खेर )के एक लेटर से होती है जिसके जरिये वह इन चारो को अपने प्रायवेट द्वीप पर बुलाता है और उसी द्वीप पर अजीब हालत में अनुपम खेर की मौत हो जाती है इस मौत की जांच ऑफिसर सिया अग्निहोत्री ( कंगना रानावत) कर रही है जो यह मानने को तैयार नहीं कि कबीर ने आत्महत्या की है बस यहाँ से शुरू होती है चोर- पुलिस की कहानी जो नए नए मोड़ लेती हुए अंत तक पहुच जाती है ।
'गेम' के बारे में खास कहने को कुछ भी नहीं है न तो पटकथा में कसावट है न ही निर्देशन में पकड़ । फिल्म पूरी तरह से बिखरी -बिखरी नजर आती है । फिल्म का मुख्य आधार क्या है यह जानने की कोशिश दर्शक हर १५ मिनिट में करता है । फिल्म की गति पूरी तरह से मंद है ,इंटरवल के बाद फिल्म में थोड़ी बहुत जो गति और मजा आता है वो भी अभिषेक बच्चन को महामंडित करने के चक्कर में ख़राब हो जाता है ।

गीत - संगीत में जावेद अख्तर और शंकर -एहसान - लाय ने निराश किया है । अभिनय के बारे में कहने के लिए फिल्म में जगह ही नही बनाई गयी । कुल मिलकर पूरी फिल्म निराश करती है । फिल्म 'गेम 'को अब्बास मस्तान की' रेस' की तरह मोड़ देने की कोशिश में अभिनव देव न इधर के रहे न उधर के । इस फिल्म के लिए तो यही कहा जा सकता है की क्रिकेट का गेम ज्यादा दिलचस्प है उसी पर नजर गड़ाई रखी जाये तो बेहतर है, क्योकि IPL की पिक्चर अभी बाकि है ।

Tuesday, March 1, 2011

शादी की अजीब कहानी - तनु वेड्स मनु


प्यार अँधा होता है और जो अँधा नहीं वो प्यार नहीं । शायद इसीलिए तनु की लाख बुराइयों के बावजूद मनु उससे प्यार करता है और शादी भी करता है ,पर शादी की ये कहानी थोड़ी अजीबो गरीब है । इसी उलझन का तड़का है फिल्म तनु वेड्स मनु ।

फिल्म में तनूजा त्रिवेदी उर्फ़ तनु ( कंगना रानावत ) दिल्ली से बी.ऐ कर चुकी ,सिगरेट और शराब पीने वाली खुले ख्यालो वाली लड़की है । तनु के लिए प्यार का मतलब हार्मोन्स बड़ने की बीमारी है बस | वंही मनोज शर्मा उर्फ़ मनु ( आर .माधवन ) लन्दन में काम करने वाला एक डॉक्टर है जो स्वभाव से सीधा साधा और शर्मीला है । मनु अपने घर वालो की ख़ुशी के लिए शादी करने के लिए भारत आता है । एक दुसरे से बिलकुल अलग ये दोनो किरदार किस्मत से एक दुसरे के नज़दीक आते है मेल - मुलाकात करते है और फिल्म आगे बदती जाती है । किस्मत की गाड़ी के मुकाम और मोड़ की कहानी ही फिल्म की जान है जो एक सुखद अंत पर ख़त्म हो जाती है ।

फिल्म की कहानी लिखी है हिमांशु शर्मा ने ; संगीत निर्देशन कृष्णा का है ;संपादन हेमंत कोठारी ने किया है और निर्देशन की बागडोर संभाली है आनंद राय ने । फिल्म का कांसेप्ट पुराना है पर ट्रीटमेंट नया । निर्देशन अच्छा है संगीत जोरदार और विविधतापूर्ण है फिल्म की कमजोर कड़ी अगर कुछ है तो वह है इंटरवल के बाद फिल्म की पकड़ का कमजोर होते जाना ।

गानों में भांगड़े से लेकर सूफियाना अंदाज़ तक अलग अलग जायके मिलते है । आर.डी.बी.का कम्पोज किया गया 'साडी गली' जहा थिरकने को मजबूर कर देता है वंही कृष्णा का 'रंगरेज' आंखे भिगोने का दम रखता है इसी तरह 'मन्नू भैया का करे है' से 'ससुराल गेंदा फूल' की याद ताज़ा हो जाती है ।

अभिनय की कसोटी पर सभी किरदार खरे उतरे है । आर .माधवन ,कंगना राणावत जिम्मी शेरगिल सहित दीपक डोबरियाल (पप्पी ) ,इलियाज़ खान (जस्सी ) , स्वयश भास्कर ( पायल ) ने भी अपने अभिनय का दम दिखाया है । सिनेमेटोग्राफी के जरिये छोटे शहर की ख़ूबसूरती को बड़े अच्छे तरीके से पेश किया गया है । डायलाग में उतरप्रदेश के ठेठ लहजे और पंजाब के रोब का अच्छा मिश्रण है, कुल मिलकर यह फिल्म हँसाती है, गुदगुदाती है , थोडा बहुत चोंकाती है और आखिर में खुश कर जाती है । फिर थियेटर से निकलते हुए आप आसानी से गा सकते है की आखिर मन्नू भैया का करे है।
..................................आपके सुझाव के इंतजार में लकुलीश शर्मा

Saturday, February 19, 2011

"सात खून माफ़ "-हातिमताई का पहला सवाल


"एक बार देखा है दूसरी बार देखने की तमन्ना है " दस्ताने हातिमताई का यह पहला प्रश्न विशाल भारद्वाज की "सात खून माफ़ " के लिए बिलकुल सटीक बैठता है ,बस इस जुमले को थोडा सा बदलना पड़ेगा कि "एक बार शादी की है दुसरी बार करने की तमन्ना है "। सात खून माफ़ एक ऐसे ही फलसफे की कहानी है जिसमे सुजाना (प्रियंका चौपडा ) एक के बाद एक करके सात शादियाँ करती है इस यकीं के साथ की यही उसका सच्चा प्यार है और अपने छः पतियों को एक एक करके मौत के घाट उतार देती है क्योकि वह हर बार गलत थी । छः खून तो वो प्रत्यक्ष रूप से करती है परन्तु सातवा नहीं अब यह सातवा खून कोन सा है इसका जवाब फिल्म के दर्शक के विवेक और कल्पना पर छोड़ा गया है ।

मकबूल , ओमकारा, कमीने फेम निर्देशक विशाल भारद्वाज का यह प्रयास थोडा अलग तरह का है, वेसे तो फिल्म रस्किन बांड की कहानी सुसाना' स सेवन हसबेंड पर आधारित है परन्तु प्रस्तुतीकरण से इसे एक अलग आयाम देने की कोशिश की है । फिल्म में निर्देशक ने जहा छोटी -छोटी बातो का ख्याल रखा है वंही कुछ बड़ी गलतिया भी दिखाई देती है जेसे सुजाना की बड़ती उम्र को मेक-अप के जरिये दिखाया गया है परन्तु एक द्रश्य में उम्रदराज दिखने के बाद अगले ही द्रश्य में वह वह वापस कमसीन दिखने लगती है| अपनी पाँचवी शादी में प्रियंका ज्यादा बूढी दिखी है तो उस सीन के दो सीन बाद अपनी छटवी शादी में थोड़ी सी जवान । ऐसे ही पहले पति अड्विक रोडिक (नील नित्रिन मुकेश ) के अंतिम संस्कार के द्रश्य में चर्च के पादरी के पास एक लड़का खड़ा होता है ,वही लड़का करीब १५ साल बाद सुजाना के पाँचवे पति कीमती लाल ( अन्नू कपूर) की मौत के वक्त भी वाणी खड़ा होता है और उतना ही बड़ा रहता है जितना की १५ साल पहले था ।

अभिनय के लिहाज़ से सभी कलाकारों ने उम्दा काम किया है, प्रियंका चौपडा का काम लाजवाब है । इरफ़ान खान और नसरुदीन शाह तो अभिनेता है ही वंही अन्नू कपूर ने भी खुद को टक्कर का साबित किया है । उषा उत्थप, नील नितिन मुकेश, जॉन अब्राहम ने भी अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है । संगीत के लिहाज़ से सब कुछ जानदार है- डार्लिंग ,ओ मामा , बेकरण ,आवारा ,येशु आदि सब गाने अलग अलग ज़ायके की तरह है जिसे गीतकार गुलजार और अजिंक्य अय्यर ने बड़े ही खूबसूरत शब्दों से परोसा है ।
फिल्म का अपना एक टेस्ट है । यह न तो मडर मिस्ट्री है न ही सायको स्टोरी यह एक थ्रिल है जिसे वास्तविकता के साथ पेश करने की कोशिश की गयी है । प्रस्तुतीकरण बहुआयामी न होकर थोडा उबाऊ है । सुजाना का चरित्र समझने में थोड़ी दिक्कत है | परन्तु शायद यही विशाल भारद्वाज का तरीका है अपनी कहानी को पेश करने का ।

अब बॉक्स ऑफिस की रिपोर्ट ही फैसला करेगी की जनता ने विशाल भारद्वाज के सात खून माफ़ किये या नहीं

आपके सुझाव के इंतजार में .....................लकुलीश शर्मा

Sunday, February 6, 2011

जिन्दगी का अजीब फलसफा-"ये साली जिंदगी "


क्या है ये जिंदगी
बड़ा अजीब सवाल है ?
मंजिल गुमनाम है शायद
या राहे अनजान है। क्या है ये जिंदगी ...

जिन्दगी एक अजीब फलसफा है | दुनिया में कोई जिंदगी से नाखुश है , कोई हैरान , तो कोई परेशान।
इसी परेशानी , हैरानी और उलझनों को अपने अंदाज में पेश किया है निर्माता प्रकाश झा और निर्देशक सुधीर मिश्र ने अपनी फिल्म ये साली जिंदगी में|

फिल्म की कहानी फिल्म के किरदारों की जिंदगी के अनचाहे समीकरणों पर घुमती है| फिल्म में अरुण (इरफ़ान खान ) एक चार्टेड एकाउंटेंट है जो मेहता (सौरभ शुक्ला )की एक फ़र्म में काम करता है । काम के सिलसिले में उसकी मुलाकात प्रीति(चित्रांगदा सिंह) से हो जाती है और अरुण को प्रीति से प्यार हो जाता है । दूसरी और कुलदीप (अरुणोदय सिंह) की अपनी अलग कहानी है वह एक गुंडा है जो तिहारजेल में सजा काट कर अपनी पत्नी शांति (अदिति राव ) के साथ जिंदगी बिताना चाहता है ,पर उससे पहले एक बड़ा हाथ भी मारना चाहता है । कहानी में दो डान;- बड़े (यशपाल ) और छोटे (प्रशांत नारायण), एक अमीरजादा श्याम (विपुल गुप्ता ) और इस्पेक्टर (सुशांत )सिंह भी है जो पूरी फिल्म के घटना क्रम को निर्देशित करते है। फिल्म में अरुण अपने प्यार के चक्कर में और कुलदीप अपने पैसे के चक्कर में एक षड़यंत्र में फसते चले जाते है और हर किरदार की जिंदगी में भूचाल आ जाता है और हर कोई कहता है "ये साली जिंदगी "

फिल्म में निर्देशन ,स्क्रीन प्ले ,डायलाग , पटकथा का दारोमदार सुधीर मिश्रा ने संभाला है । फिल्म के गीत लिखे है स्वानंद किरकिरे ने और संगीत मिशांत खान का है । संपादन अमित डी रस्तोगी ने किया है और सिनेमेटोग्राफी सचिन कुमार कृष्णन ने ।

फिल्म एक फुल टाइम इंटरटेनमेंट पैकेज है ,निर्देशन बढ़िया है पटकथा कसी हुई है ,डायलाग सटीक और लाजवाब ,गीत शानदार और संगीत गीत पर बिलकुल अनुकूल । फिल्म की कहानी इतनी तेज़ी से बदती है की संपादन की गलतियाँ पकड़ने का मोका ही नहीं मिलता। यह फिल्म पूरी तरह से वयस्क और रियलिटी फेक्टर के संवादों से भरी पड़ी है .गलियों का भरपूर उपयोग है और अश्लीलता का मीटर भी बड़ा हुआ है । अभिनय के पलड़े पर कोई किसी से हल्का नहीं है पर इरफ़ान खान ,सौरभ शुक्ल और सुशांत सिंह ने कमाल किया है ।
कही कही पर "ये साली जिंदगी " में " हजारो ख्वाईशे ऐसी" की झलक दिखाई देती है परन्तु प्रस्तुतीकरण ने इसका एक अलग आयाम बनाया है

Friday, January 21, 2011

एक विस्तृत अर्थ में -"धोबी घाट "


धोबी घाट -सामान्य अर्थ में एक ऐसी जगह जहाँ धोबी कपडे धोता है, और वृहद अर्थ में -एक ऐसी जगह जहा नीले -पीले ,गुलाबी और न जाने कितने ही रंग निखरते है, संवरते है ; एक ऐसी जगह जहाँ जब कपडा आता है तब वह मेला- कुचेला होता है और यहाँ आकर स्वच्छ- निर्मल हो जाता है । यानि ऐसी जगह जहाँ गंदगी धुल जाती है ,मिट जाती है ,बह जाती है ऐसा ही कुछ कहने का प्रयास करती है- निर्देशक किरण राव और निर्माता आमिर खान की फिल्म धोबी घाट ।

फिल्म का नाम धोबी घाट होने का मतलब यह नहीं है की फिल्म धोबियो की कहानी है ;फिल्म कहानी है मुंबई की सोच की ,मुंबई के हालात की ,प्यार के कशमकश की ,चार अलग अलग व्यक्तियों के जीवन की और उसमे बसी समानताओ की । इसलिए फिल्म का पूरा नाम धोबी घाट (मुंबई डायरीज़) है ।

फिल्म में मुन्ना ( प्रतिक बब्बर ) एक धोबी है जो मूलतः बिहार का रहने वाला है । शाय ( मोनिका डोंगरा) एक बैंकर है और शोकिया तोर पर फोटो ग्राफर भी ;वह अमेरिका में काम करती है और एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में मुंबई आती है । अरुण ( आमिर खान ) एक पेंटर है जो अकेला रहना पसंद करता है और यस्मिन (कृति मल्होत्रा ) उ.प.की एक सीधी -साधी घरेलु लड़की है जिसकी शादी मुंबई में हुई है । फिल्म के यह चारो किरदार अलग-अलग तरीके से एक दुसरे को प्रभावित करते है और मनोवैज्ञानिक ढंग से फिल्म में नए नए मोड़ आते चले जाते है 95 मिनिट की यह फिल्म मुम्बईया जिन्दगी और उसके सच की कलई खोलने का पूरा प्रयास करती है ।

फिल्म दो अलग अलग वर्जन में रिलीज़ हुई है । मुख्य वर्जन में अंग्रेजी भाषा का प्रयोग ज्यादा हुआ है और दुसरे वर्जन में अंग्रेजी भाषा के डायलाग को भी हिंदी में रूपांतरित किया गया है । फिल्म के डायलाग अर्थपूर्ण और किरदार के अनुसार ढले हुए है । कैमरा वर्क जानदार है और प्रतीकात्मक भी ;सिनेमेटोग्राफी शानदार तरीके से की गयी है । पटकथा कसी हुयी है और निर्देशन उम्दा । बस फिल्म का प्रस्तुति करण थोडा प्रयोगात्मक है जैसे फिल्म की शुरवात में ही हेंडी- केमेरा का प्रयोग और एक आवाज जिसका कोई परिचय नहीं है । इसी प्रकार एक द्रश्य में मुन्ना का लाठी लेकर जाना और सीन का वही पर बदल जाना, परन्तु यह सभी द्रश्य फिल्म के आगे बड़ने पर संतुलित हो जाते है और इनके अर्थ भी स्पष्ट हो जाते है ।

धोबी घाट एक प्रयोग है, कला फिल्मो की सार्थकता और मानवीय संवेदनाओ की प्रस्तुति का । इसलिए इस फिल्म में न तो बालीवुड के लटके झटके है ,न आंसू से सराबोर फेमेली ड्रामा और न ही हंसती गुदगुदाती कॉमेडी ; इस फिल्म में एक तथ्य है ,एक शहर है , एक जिन्दगी है और कई नजरिये है जो दर्शको के दिमाग को बहुत सा मसाला देते है मानसिक जुगाली के लिए

मुख्य धरा से हट कर किरण राव और आमिर खान ने एक सराहनीय प्रयास किया है ,अब यह देखना दिलचस्प होगा की आम जनता क्या माइंड लैस सिनेमा और पैसा वसूल कॉमेडी से अलग हटकर इस नयी सोच को स्वीकार कर पाती है ? ..............................................आपके सुझाव के इंतजार में लकुलीश शर्मा

Sunday, January 16, 2011

पैसा वसूल है - यमला पगला दीवाना


एक परिवार जो फिल्म की शुरवात में बिछड़ जाता है और आखिर में मिल जाता है " यह एक ऐसा विचार है जिसने हिंदी सिनेमा की कई ब्लाक बस्टर्ड फिल्म को रचा है और इसी लाइन को एक बार फिर कहानी बनाकर मसखरे अंदाज में भुनाया है निर्माता नितिन मनमोहन और निर्देशक समीर कार्निक ने अपनी फिल्म यमला पगला दीवाना में ।
फिल्म की कहानी के नाम पर परिवार के बिछड़ने की दास्ताँ है । बड़ा भाई परमवीर सिंह ( सनी देवोल ) अपनी माँ ( नफीसा अली ) के साथ कैनेडा में रहता है जिसका अपना परिवार और बच्चे है । एक दिन उसे पता चलता है कि उसके पिता धरम सिंह( धमेंद्र ) और भाई गजोधर ( बोबी देवोल )बनारस में है और लोगो को ठगने का काम करते है । इधर बनारस में गजोधर एक फोटो ग्राफर साहिबा ( कुलजीत रंघावा ) से प्यार करता है और उसे पाना चाहता है । अब पूरी फिल्म हर किरदार की चाहत को हासिल करने की कहानी बन जाती है परमवीर परिवार को एक करना चाहता है, गजोधर और साहिबा शादी करना चाहते है और धरम सिंह अपनी गलतियों की माफ़ी चाहता है । इस चाहत के बीच है साहिबा के भाई जोगिन्दर सिंह (अनुपम खैर ) और उसकी गैंग ; कुछ गुदगुदाते द्रश्य ; बहुत सी ट्रेजेडी और मसाला और बन जाती है फिल्म यमला पगला दीवाना

फिल्म का निर्देशन ठीक ठाक है। समीर कार्निक कॉमेडी की गाड़ी को हाकने में सफल रहे है फिल्म की लम्बाई कुछ ज्यादा है पर इसे नजर अंदाज़ किया जा सकता है | फिल्म के संगीत के लिए एक लंबी कड़ी ने मेहनत की है जिसमे लक्ष्मी कान्त प्यारेलाल के "मै जट यमला पगला " गीत से लेकर अनु मालिक,आर.ड़ी बी .और राहुल सेठ का नाम शामिल है । इस विविधता के करण ही "टिंकू पिया और चमकी जवानी " ज़हा आईटम नंबर है वंही "चड़ा दे रंग" और "गुरबानी" गंभीर प्रस्तुति है । अभिनय की कसोटी पर सनी देओल सब पर भारी है ;धर्मेन्द्र और बाबी का भी अच्छा काम है । अनुपम खेर अपने अनोखे अंदाज में लाजवाब लगे है वही कुलजीत रंघावा की ख़ूबसूरती का फिल्म में कोई जवाब नहीं; माँ के किरदार में नफीसा अली ने थोडा निराश किया है।

संपादन ,छायांकन, पटकथा आदी ठीक है । फिल्म में जो बनारस का घाट दिखता गया है वो म.प. का महेश्वर घाट है , जो ख़ूबसूरती के मामले में कही भी कमजोर नजर नहीं आया ; महेश्वर में फिल्माए गए कुछ द्रश्य तो इतने सुन्दर है की उन पर नजर चिपकर रह जाती है

सारांशतः यह एक हलकी फुलकी मनोरंजक फिल्म है जिसकी कॉमेडी में फूहड़ता का तड़का नहीं है इसलिए इसे पुरे परिवार के साथ बैठ कर इसे देखा जासकता है, और फिल्म में हँसते मुस्कुराते हुए कहा जा सकता है की ये जट "यमले पगले दीवाने " इती सी बात न जाने के के के ..................


आप के सुझाव के इंतजार में .....लकुलीश शर्मा

Saturday, January 8, 2011


no one killed jesica ;जेसिका को किसी ने नहीं मारा, यही खबर थी देश के प्रमुख अखबारों में जेसिका लाल हत्या काण्ड के सन्दर्भ में । एक सनसनीखेज़ हत्या कांड जिसमे करीब ३०० लोगो की मोजुदगी में मनु शर्मा ने ड्रिंक न देने की बात पर मॉडल जेसिका लाल की गोली मार कर हत्या कर दी| परन्तु अदालत में गवाहों के मुकर जाने पर मनु शर्मा छुट गया । मीडिया द्वारा तुल पकड़ने पर यह केस फिर से खुला और हाई कोर्ट में मनु शर्मा को उम्र कैद की सजा हुई । इसी सत्य घटना पर आधारित है फिल्म "नो वन किल्ड जेसिका "

फिल्म में कहानी यही सिलसिला बयां करती है पर थोडा फ़िल्मी अंदाज में , फिल्म की शुरवात में यह साफ़ कर दिया गया है की यह फिल्म सत्य घटना पर केद्रित है परन्तु वृतचित्र (documentary) नहीं इसलिए फिल्म में नाटकीय तत्व है। यह कहना लाजमी है की फिल्म में थोड़ी बहुत नाटकीयता जो निर्देशक राजकुमार गुप्ता ने कायम की है वो फिल्म के हिसाब से जरुरी भी है ।

फिल्म मुख्यतः जेसिका की बहन सबरीना (विद्या बालन ) और रिपोर्टर मीरा (रानी मुखर्जी ) पर केन्द्रित है । फिल्म में सबरीना जहा घरेलु और सीधी -साधी लड़की है |वही मीरा एक तेज तर्राट ,बातो में अपशब्दों का प्रयोग करने वाली और किसी से न डरने वाली रिपोर्टर के किरदार में है । फिल्म में इन दोनों अभिनेत्रियों का काम काबिले तारीफ है न कोई कम न कोई ज्यादा ;दोनों ने अपने किरदार को पूरी तरह से जिया है

पटकथा ,डायलाग और निर्देशन की बागडोर राजकुमार गुप्ता के हाथ में है | "आमिर " फेम राजकुमार गुप्ता ने दर्शको को निराश नहीं किया , फिल्म की कहानी इंटरवल के पहले थोड़ी धीमी है पर इंटरवल के बाद दर्शको को पलक झपकने का मोका नहीं मिलता । म्यूजिक निर्देशक के तौर पर देव डी और आयशा फेम अमित त्रिवेदी का बेहतरीन काम है । अमित की धुन पर अमिताभ भटाचार्य ने बोलो को बुनकर अच्छे गाने बनाये गए है । संपादन के काम को आरती बजाज ने एक बार फिर अच्छे से निभाया है । यानि बालिवूड में नए साल की अच्छी शुरवात ।

एक बात यहाँ कहना जरुरी है की थोड़े दिन पहले आई फिल्म पीपली लाइव ने जहा मीडिया के नकारात्मक पहलु को उजागर किया था वही यह फिल्म मीडिया के सकारात्मक पहलु से रूबरू कराती है । दोनों ही फिल्म में मुद्दे की बात सिर्फ इतनी है कि -व्यावसायिकता और टी.आर.पी की भूख को सही मुद्दों से शांत करना चाहिए या बेबात की खबरों से । इस बात को एक अच्छे प्रस्तुतीकरण के साथ बयां करने के लिए राजकुमार गुप्ता की पीठ जरुर थपथपाई जानी चाहिए ।