Sunday, October 24, 2010

रक्त -चरित्र


"मोहिनी सूरत दिल के खोटे
नाम बड़े और दर्शन छोटे"


पिछले हफ्ते की दो बड़ी फिल्मो को देख कर बस भगवान् दादा का यह गाना ही याद आता है। पिछले हफ्ते रिलीज हुई आक्रोश अच्छी पटकथा होने के बावजूद कमजोर निर्देशन की भेट चढ़ गयी वही इस हफ्ते रीलिज रक्त-चरित्र का हाल भी कुछ एसा ही है या फिर यु कहे की इससे भी बदतर है ।
रक्त -चरित्र में चरित्र नहीं है सिर्फ रक्त ही रक्त है पूरी फिल्म में दिखाई देता है सिर्फ खून ,खून , और खून । पटकथा के नाम पर दो परिवारों की लड़ाई है जो बाद में जातिगत लड़ाई बन जाती है । और पूरी फिल्म में बस मारा मारी होती रहती है । फिल्म देख कर एसा लगता है की मानो ये कोई वृतचित्र( documentry) है जो यह जानकारी देती है की इंसान को कितने तरीको से मारा(क़त्ल किया) जा सकता है ।

फिल्म की शुरवात होती है आनंदपुर गाव की भूमिका से जिसमे वह फैली गुंडागर्दी को background voice के साथबताया जाता है की यह फिल्म सत्य घटना पर आधारित है परन्तु फिल्म में दिखाए गए द्रश्यो से आतिरेक की गंध आती है ।

फिल्म में प्रताप रवि (विवेक ओबेरॉय ) एक पिछड़ी जाती का पड़ा लिखा और समझदार नौजवान है जिसके पिता को राजनेतिक हथकंडो के तहत मार दिया जाता है जिसका बदला प्रताप रवि लेता है फिल्म में शत्रुघ्न सिन्हा एक नेता- अभिनेता के शिवा जी के रोल में है जिसकी एक राजनेतिक पार्टी है आगे जाकर वह प्रताप रवि को raajniti में लाने के लिए प्रस्त्भूमि बनाता है । फिल्म के अंत में प्रताप रवि का वर्चस्व बाद जाता है और फिल्म क्रमश : पर ख़त्म हो जाती है फिर दर्शको से आग्रह किया जाता है की आगे क्या होगा यह जानने के लिए देखिये रक्त चरित्र पार्ट -२ जो १९ november को रिलीज होगी ।

फिल्म में अगर अभिनय की बात करे तब विवेक ओबरी की पीठ थपथपाई जा सकती है ,विवेक के अतिरिक्त अभिमन्यु सिंह (फिल्म में भुक्का रेड्डी )का भी अभिनय काबिले तारीफ है । फिल्म का कैमरा वर्क अच्छा और विविधता लिए है जो पूरी तरह से दक्षिण भारतीय फिल्मो की तरह उपयोग किया गया है ,संपादन ठीक ठाक है ,संगीत पर कोई टिपण्णी न की जाये तो ही बेहतर है। आखिर में कहा जा सकता है की सत्या ,कंपनी जेसी फिल्म देने वाले रामगोपाल वर्मा से लगाईं उम्मीद रक्त -चरित में पूरी नहीं होती दिखाई देती।

अब देखना यह है की पहले से घोषित रक्त-चरित पार्ट कितनी पब्लिक जुटा पाती है। क्योकि दूध का जला छाछ भी फूंक- फूंक कर पीता है

Friday, October 1, 2010

अनजाना-अनजानी :क्यों बनी ये कहानी



ना जानते तुम्हे तो बेहतर ही था|
जान कर अनजान बनना हमारी फितरत नहीं ||

निर्माता साजिद नदियावल और निर्देशक सिद्धार्थ आनंद की फिल्म अनजाना - अनजानी दो विपरीत स्वभाव वाले व्यक्तियों की प्रेम कहानी है | फिल्म में आनंद (रणबीर कपूर और कियाना (प्रियंका चोपड़ा )दोनों आत्महत्या करना चाहते है और दोनों की मुलाकात आत्हत्या की कोसिस करते हुए हो जाती है |दोनो आत्महत्या करने में असफल हो जाते है औरतब दोनों फैसला करते है की २० दिन में अपने सारे काम और शौक पूरा कर के साथ में मरेंगे |बस यही से प्यार पनपने की परीस्थिति शुरू हो जाती है और और हर भारतीय मसाला प्रेम कहानी की तरह एक सुखद अंत पर फिल्म ख़तम हो जाती है |

देखा जाये तो इस फिल्म का कांसेप्ट थोडा हट कर है परन्तु उसे भुनाने में निर्देशक सिद्धार्थ आनंद असफल रहे है |फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी इसकी कमजोर पटकथा और उसमे कसावट की कमी है और रही सही कसर उसका सामान्य निर्देशन पूरा कर देता है |फिल्म का पहला भाग तो पूरी तरह से बोर करता है इंटरवल के बाद फिल्म कुछ गति पकडती है पर बीच बीच में लोकल ट्रेन की भांति रुक जाती है |

अभिनय के मामले में रणबीर और प्रियंका दोनों ने अच्छा काम किया है बल्कि कई द्रश्यो में प्रियंका ने रणबीर को मात भी दी है |फिल्म में यदि कुछ इमोशन ,ड्रामा और कामेडी का तड़का होता तो यह अभिनय और उभर के सामने आता। फिल्म में जो थोडा बहुत हास्य का पुट है भी तो वह सिर्फ द्विअर्थी द्रश्यो से पैदा होता है जिसका असर सीमित रहता है |फिल्म का संपादन और धव्नियांकन औसत दर्जे का है । आश्चर्य की बात है की विशाल -शेखर( म्यूजिक डायरेक्टर ) और सलीम -सुलेमान (बेग-ग्राउंड एसकोर ) जेसी दो बड़ी संगीत जोडियो के होने के बावजूद संगीत में कहने को कुछ खास नहीं है । फिल्म में कुछ संवाद जरुर अच्छे है जो जीवन के मायने पिरोने के लिए लिखे गए है

कुल मिला कर कहा जा सकता है की यदि यह फिल्म पिछले हफ्ते रिलीज हो जाती तब यह उस सप्ताह की एकमात्र फिल्म होती परन्तु इस हफ्ते लगभग २०० करोड़ वाली फिल्म रोबोट के सामने अंजना- अनजानी का प्यार कमाल दिखा पाए इस बात में संदेह है |क्योकि दर्शक मनोरंजन की नब्ज़ पहचानते है | साहब ये पब्लिक है यह सब जानती है |