Saturday, December 20, 2014

"PK is not just OK"

एक आदमी जो  इस ग्रह का नही है , किसी  दूसरी दुनिया से आया है और कमाल की बात यह है की आते ही उसका सामान चोरी हो जाता है ।( यह बात हमारी वैश्विक सोच को दर्शाती है की हम चोरी  करने में इतने आगे हैं की परग्रही का सामान भी चुरा ले ) अपने सामान की खोज से पीके  की शुरू हुई कहानी आत्मचिंतन और वैचारिक बुद्धिमता तक पहुंच जाती है , धर्म , भगवान पर सवाल खड़े होते हैं और कहानी आगे बढ़ती जाती है ।

निर्माता विधु विनोद चौपड़ा और निर्देशक राजकुमार हिरानी की यह फिल्म एक सामान्य से सवाल का सामान्य सा जवाब असामान्य तरीके से पेश करने की कोशिश करती है । फिल्म के पहले ही फ्रेम से फिल्म का अच्छा लगना शुरू हो जाता है और फिर ये कशिश अंत तक बनी रहती है । कथानक के मामले में फिल्म थोड़ी सी कमजोर पड़ जाती है पर प्रस्तुतिकरण अच्छा है और कमजोर पड़ने का कारन सिर्फ इतना है की हम पहले ही इस मुद्दे पर एक सशक्त फिल्म देख चुके हैं । फिल्म के अगर स्क्रीनप्ले पर नज़र जाये और अगर हम यह भूल जाये की इन्ही लेखको ने ३ इडियट्स और मुनाभाई सीरीज का स्क्रीनप्ले लिखा था तो इसे उम्दा कहा जा सकता है वरना नही ।  राजकुमार हिरानी इस बार थोड़ा निराश किया है स्क्रीनप्ले बुरा नहीं था पर उम्मीद कुछ ज्यादा की थी । निर्देशन वही हसने रुलाने के नमकीन मीठे बिस्किट जैसे एक बाईट में दो दो स्वाद  ।  इस बार संवाद में वो पंच लाइन कहीं गायब है जो  राजकुमार हिरानी की फिल्मो मिलती थी चाहे वो "जादू की झप्पी" हो या "तोहफा कबूल करो" ।

एक्टिंग में अमीर खान ने अच्छा काम किया है ।धुम ३ के बाद निराश हुई जनता के लिए ये अच्छी खबर है । अनुष्का शर्मा ने भी रोल की अदायगी में जी जान लगा दी  है और सुशांत राजपूत ने भी  पर फिर भी विशेष नहीं कहा जा सकता ।बोमन ईरानी , कम रोल में भी बेहतरहीन लगे है और संजय दत्त ने भी बहुत अच्छे से अपने किरदार को निभाया है ।editing  और गीत संगीत में कहने के लिए कुछ विशेष नहीं । सिर्फ ठरकी छोकरो ही  एक मात्र ऐसा गाना है जो फिल्म खत्म होने पर याद रह जाता है ।

कुल मिला कर  फिल्म अच्छी है , पर अगर आप राजकुमार हिरानी के Die Hard Fan हैं  तो फिर आपको थोड़ी निराशा हाथ लग सकती है क्योकि , एक बार ५६ पकवान खाने के बाद खिचड़ी खाना थोड़ा अरुचिकर लगता ही है और यह राजकुमार हिरानी की मसालेदार खिचड़ी है । है मसालेदार पर है तो  खिचड़ी , हाँ अगर कोई दूसरा निर्देशक इस तरह की फिल्म बनाता तो यह पुलाव कही जा सकती थी |

आपके सुझावो के इंतजार में ....लकुलीश 

Monday, October 6, 2014

"हैदर" विशाल भरद्वाज की खूबसूरत हेमलेट


"जब तक हम इंतकाम से आज़ाद नही होंगे , वाकई में आज़ाद नही होंगे"| आज आज़ाद भारत के  ६० दशक पुरे होने के बाद भी हम इंतकाम से आज़ाद नही हो पाएं हैं, कभी यह इंतकाम दंतेवाड़ा में होता है तो कभी फ़र्ज़ी इनकाउंटर बन कर इरशत जहाँ की याद दिला जाता है , पर इस एक बात को लेकर अगर हैदर जैसी खूबसूरत फिल्म बन पड़े तो इस बात के लिए  विशाल भारदवाज बधाई के पात्र हैं।

  फिल्म "हैदर" विलियम शेक्सपियर के नाटक हेमलेट से प्रभावित है , नाटक का फिल्म पर कितना प्रभाव है इस बात को कहना मेरे लिए मुश्किल है, पर यह कहना बहुत आसान है की एक फिल्म के स्क्रीनप्ले के लिहाज़ से कहानी अच्छी बन पड़ी हैं।

 फिल्म की कहानी कश्मीर के अंतर्दन्द की कहानी है जहाँ हैदर (शहीद कपूर ) के पिता (नरेंद्र झा) को सेना एक छापामार कार्यवाही में आतंकवादियों की मदद करते हुए पकड़ लेती है और काफी वक़्त तक उनका कोई पता नहीं चलता । हैदर अपनी माशुका अर्शिया (श्रद्धा कपूर ) के साथ अपने पिता को खोजने की बहुत कोशिश करता है और वहीँ दूसरी और हैदर का चाचा खुरम( के के मेनन ) अपनी भाभी(तब्बू ) के साथ निकाह पड़ने की कोशिश में होता है , फिल्म अपनी पकड़ थोड़ी सी ढीली होती है तभी रूहदार (इरफान खान) फिल्म में हैदर की ज़िंदगी में एक नए भूचाल के साथ इंट्री करता है और हैदर की पूरी ज़िंदगी को बदल देता है अपने पिता की खोज से शुरू हुई यह फिल्म रिश्तो के ताने-बाने बिखेरते हुए एक जबरदस्त अंत तक जा पहुँचती है |

 कहानी के साधारण होने के बाजवूद भी पटकथा (स्क्रीनप्ले ) में फिल्म रोचक हो जाती है, उसके बाद कश्मीर की खूबसूरत नज़ारे, और रंगो के बेजोड़ समन्वय फिल्म की खूबसूरती को और बड़ा देती है ,इस फिल्म को देखने के बाद आपके मन में एक ख्याल जरूर आता है की क्या वाकई कश्मीर इतना खूबसूरत हैं।

 अभिनय के तराजू पर तौला जाये तो शाहिद कपूर ने यह सिद्ध करने की पूरी पूरी कोशिश की है की वह पंकज कपूर की जागीर ( अभिनय की भी ) के सही वारिस हैं।  श्रद्धा कपूर फिल्म में बेहद खूबसूरत लगी है पर एक्टिंग में थोड़ी कमजोर पड़ गयी है ,पर फिर भी अपने किरदार को निभाने में पूरी तरह से सफल रहीं , हैदर के पिता के किरदार में नरेंद्र झा ने छोटा पर प्रभावशाली रोल किया है , तब्बू, इरफ़ान खान  और के. के मेनन के लिए सिर्फ एक ही बात कही जा सकती है- शानदार ।

 अब अगर गीत और संगीत के बारे में बात की जाये तो मेरा शब्दकोष बगले झाँकने लगता हैं , गुलज़ार ने एक मुद्दत बाद किसी फिल्म के लिए इतने दिल खोल कर गाने लिखे है , अलग-अलग शब्द से सजे ऐसे जैसे हलवाई ने अलग अलग तरह की मिठाइयों से दूकान सजा रखी हो , जिनमे खोया , घी  और शक्कर ही है पर  जायका अलग है । और इन शब्दों पर विशाल भरद्वाज के संगीत ने  गुड में घी का काम किया है । गुरु-चेले की यह जोड़ी इतने विविधता पूर्ण और अच्छे गानो के लिए बधाई की पात्र है।

फिल्म में कश्मीर के हर पहलु और समस्याओ को दिखाते हुए हर मुद्दे पर बात करने की कोशिश की गयी है, हर पक्ष को पेश किया गया है पर अगर आप दिमाग अपने घर पर छोड़ कर गए हैं तो फिर यह कहना मुश्किल है की आप धागो से वह सारे सिरे पकड़ पाएंगे जो फिल्म में बिखरे हुए से हैं |  यह फिल्म कहीं नहीं कहती की कौन बुरा है पर वह यह जरूर कहती है की बुराई हर जगह हैं। कुल मिलकर यह फिल्म  विशाल भरद्वाज की बेहतरीन फिल्मो में से एक है , जिसे देखने के लिए दोस्त , गर्लफ्रेंड और पॉपकॉर्न को थोड़ा नाराज़ करने की जरुरत है ,क्योकि अगर आप परदे पर से नज़र हटाएंगे तो कश्मीर की सुन्दर वादियों के किसी शानदार नज़ारे को खो देंगे।
........................................................आपके सुझाव के इंतज़ार मे ...लकुलिश