Sunday, December 26, 2010

तीस मार खान को झेल पाना "आसन काम" नहीं


कहा जाता है की इस दुनिया में किसी को रुलाना बहुत आसान है परन्तु किसी को हंसा पाना बहुत मुश्किल,अगर आप तीस मार खान देख रहे है ये कहावत कुछ ऐसी हो जाती है कि यहाँ हँसना मुश्किल है और रोना तो लगभग ना मुमकिन । हां टिकिट पर खर्च किये गए पैसे को याद करके शायद आपके आंसू निकल आये ।

फराह खान द्वारा निर्देशित और शिरीष कुंदर ,टिवंकल खन्ना ,रोनी स्क्रूवाला द्वारा निर्मित '' तीस मार खान '' पूरी तरह से दर्शको की सब्र का इम्तिहान है । फिल्म में कहानी है एक चौर की जो बड़ा विख्यात है और जिसके पीछे पूरी पुलिस फौर्स पड़ी है । वह एक चौरी का कांट्रेक्ट लेता है और आखिर में चोरी कर लेता है । इस कांसेप्ट में डाले जाते है कुछ उलजलूल डायलाग , द्विअर्थी कॉमेडी और सेक्स का भौंडापन बस बन जाती है फिल्म तीस मार खान|
फिल्म में लाजिक तो है ही नहीं मनोरंजन के नाम पर भी कुछ नहीं है| ढाई घंटे की इस फिल्म से ज्यादा हंसी और मनोरंजन तो आधे घंटे के कॉमेडी सर्कस और लाफ्टर शो में हासिल किया जा सकता है । फिल्म में आधे से ज्यादा कार्य तो शिरीष कुंदर ने किये है- निर्माता ,बेग्राउण्ड स्कोर ,संपादन, स्टोरी, स्क्रिप्ट सब कुछ कुंदर के ही भरोसे है जो की पूरी तरह प्रभाव हीन प्रस्तुति है ।

संगीत निर्देशक विशाल -शेखर है और डांस की कमान फरहा खान और गीता कपूर के हाथ में है । शीला की जवानी के लटको को छोड़ कर संगीत और डांस की प्रस्तुति सामान्य ही है । अभिनय के नाम पर किसी अभिनेता के पर ऊँगली नहीं उठाई जा सकती क्योकि निर्देशक फरहा खान ने जिस तरह का अभिनय प्रस्तुत करवाना चाहा है हर कलाकार ने खुद को उसी रूप में प्रस्तुत किया है । इस कार्य के लिए अक्षय कुमार ,अक्षय खन्ना , और सपोर्टिंग रोल में अमन वर्मा बधाई के पात्र है । कटरीना पूरी फिल्म में खूबसूरत दिखी है पर उसे अभिनय करने का कोई मोका ही नहीं दिया गया । बाकि पूरी फिल्म में कहने -सुनाने के लिए कुछ नहीं है । न तो निर्देशन की खासियत ,न संपादन की कसावट और न ही कहानी की गति| हाँ परन्तु मार्केटिंग के नजरिये से यह बात सिखने योग्य है की कैसे "शीला की जवानी" के बल पर दर्शको को थियेटर हाल तक खीचा जा सकता है । आखिर में फिल्म के तीस मार खान यानि अक्षय कुमार के अंदाज में कहा जा सकता है की

"सूरज को सीधे देख पाना और तीस मार खान को झेल पाना आसान नहीं है "

आपके सुझाव का इंतज़ार रहेगा ......................लकुलीश शर्मा

Saturday, December 4, 2010

"खेले हम जी जान से "


खेले हम जी जान से यानि आशुतोष गोवारिकर एक बार फिर हाज़िर है फिल्म जगत में अपनी पारी खेलने को । अभिषेक बच्चन , सिकंदर खेर ,दीपिका पादुकोण जैसे स्टार से सजी यह फिल्म एक सत्य घटना पर आधारित फिल्म है | फिल्म का आधार है १९३० का चटगांव ( वर्त्तमान बंगलादेश ) विद्रोह पर |
फिल्म में सुरज्या सेन की भूमिका में है अभिषेक बच्चन ,कल्पना दत्त की भूमिका में है दीपिका पादुकोण ,सिकंदर खेर निर्मल सेन के रोल में है । इस के अलावा मनिंदर (अनंत ) विशाखा सिंह (प्रीतिलता ) के किरदार में है । फिल्म की कहानी की शुरवात होती है १९३० के परिवेश से जहा चटगांव के कुछ साहसी व्यक्ति आज़ादी के लिए क्रांति की योजना बना रहे है| तब उनकी क्रांति में कुछ बच्चे भी हिस्सा लेना चाहते है जिनके खेल का मैदान अंग्रेजो ने छीन लिया है । उनका दल(इंडियन रिपब्लिक आर्मी ) यह तय करता है , की १८ अप्रेल १९३० को वह चटगांव से अंगेजी राज्य का खत्म कर आजादी का आगाज़ करेंगे । पूरी फिल्म इस फैसले और इसके बाद की कार्यवाही पर चलती है । सबसे पहले आशुतोष गोवारिकर बधाई के पात्र है जिन्होंने इस तरह की सत्य घटना पर( जो की लगभग उपेक्षित है) फिल्म बनाने का प्रयास किया । फिल्म का कांसेप्ट बहुत शानदार है परन्तु इस कांसेप्ट से बनी पटकथा उतनी उम्दा नहीं जितनी की अपेक्षा की जा सकती थी |फिल्म का सबसे कमजोर पक्ष है उसकी अच्छाइयो और श्रेष्ठता को निर्देशन द्वारा न भुना पाना । अगर निर्देशक ''लगान'' वाला हो तब उम्मीदे और बड जाती है ऐसे में आशुतोष गोवारिकर ने निर्देशक और पटकथा लेखक के तौर पर सही नहीं उतर पाए । फिल्म अच्छी है पर इसे सर्वश्रेष्ठ बनाया जा सकता था ।

इस फिल्म की खामियों में द्रश्यो का उबाऊ होना , सीन का बेवजह लम्बा होना ,दिलीप दिओ द्वारा ख़राब संपादन और संवादों(डायलाग ) का बेअसर होना माना जा सकता है । वही फिल्म की अच्छाइयो में फिल्म का संगीत ,उसकी मूल कथा और देश -भक्ति की भावना को रखा जा सकता है |

अभिनय के तराजू पर सभी कलाकारों का प्रदर्शन ठीक ठाक है । यहाँ पर फिरोज वाहिद खान (फिल्म में लोकनाथ बाल) का उल्लेख आवश्यक है । फिरोज ने कुछ द्रश्यो में शानदार स्वाभाविक अभिनय किया है । गीत -संगीत पक्ष अच्छा है जिसके लिए जावेद अख्तर और सोहेल सेन बधाई के पात्र है ।

फिल्म के लिए आखिर में यही कहा जा सकता है की काफी वर्षो बाद भारतीय स्वतंत्रा संग्राम की सत्य घटना को लेकर कोई फिल्म आई है जिसे देखना हमारी उन शहीदों के प्रति आदरांजलि है जिन्होंने सोलह वर्ष की आयु में ही अपने प्राणों का त्याग माँ भारती के लिए कर दिया । फिल्म में भले ही मनोरंजन ,इमोशन और प्रभाव की कमी हो परन्तु उन गुमनाम देशभक्तों का चित्रण करने के लिए आशुतोष गोवारिकर को इतना पारितोष तो दिया ही जाना चाहिए |

आपकी प्रतिक्रियाओ का इंतजार रहेगा ............लकुलीश शर्मा

Friday, November 19, 2010

हेर्री पोटर प्रगतम


विन्गारियम लेविओसा ( हवा में उड़ने वाला जादुई मंत्र )
यानि हेर्री पॉटर की जादुई दुनिया के ख़यालात एक बार फिर हाज़िर है आप को जादुई सैर कराने के लिए । सन २००१ में जब हेर्री पॉटर सीरिज की पहली फिल्म हेर्री पॉटर और पारस पत्थर ( English tital - Harry potter and soccer's stone ) रिलीज हुई थी तब किसी को अंदाजा नहीं था यह जादू इस तरह भारतीय दर्शको के सर पर चढ़ कर बोलेगा ।

हेर्री पॉटर सीरिज की सातवी फिल्म मौत के तोहफे की कहानी शुरू होती है और पूरी दुनिया पर वोल्ड मोर्ट का कहर दिखाया जाता है । वोल्ड मार्ट का एक ही सपना है की हेर्री पॉटर को मौत के घाट उतार दिया जाये और इस काम के लिए वह अपनी पूरी फोज़ को लगा देता है| वंही दूसरी और हेर्री खुद को अकेला और असहाय mahsus कर रहा है । वह वोल्ड मार्ट का मुकाबला करने और उससे खत्म के लिए उसकी आत्मा के टुकड़े ( हु क्रक्स )को ढूढने का फैसला करता है | उसके इस फैसले में उसका साथ देते है रोन विजली (रुपर्ट गिन्त) और हरमायनी ग्रेंजर (एम्मा वाटसन ) । पूरी फिल्म दो तरफ़ा संघर्ष की कहानी है एक और हेर्री पॉटर का मकसद और दूसरी ओर वोल्ड मार्ट के शैतानी इरादे ।

डेनिअल रेडक्लिफ (हेर्री) ,एम्मा वाटसन (हरमायनी ) ,रुपर्ट गिन्त (रोन ) का अभिनय अच्छा है पर बहुत उम्दा नहीं । रेफल फिन्स (वोल्ड मोर्ट )ने अपनी दहशत ओर चालाकी को अभिनय से बरक़रार रहा है । फिल्म के बाकी कलाकार ने भी सधा हुआ अभिनय किया है फिर चाहे वह कलाकार २ मिनिट के लिए ही स्क्रीन पर आया हो ।

फिल्म का निर्देशन डेविड येट्स ने किया है जिन्होंने इस सिरीज़ की पिछली दो फिल्म मायापंछी का समूह (order of phoenix) ओर हाफ ब्लड प्रिन्स का निर्देशन किया है उनके निर्देशन का तकनीकी कोशल शानदार है परन्तु कहानी की कसावट ओर प्रभाव में वह इस सिरीज़ के अन्य निर्देशक जेसे क्रिश कोलंबस ( परस पत्थर ओर तहखाने का रहस्य फेम ) से काफी पीछे है ।

फिल्म में कहानी का आकर्षण इस सिरीज़ की अन्य फिल्म के मुकाबले कमजोर है फिल्म देख रहा दर्शक जब फिल्म जब इंटरवल के बाद १५ से २० मिनिट तक स्लो हो चुकी मूवी को देखता है तो खुद को थोडा बोर महसूस करने लग जाता है |हेर्री पॉटर सीरिज जैसे -जैसे अंत की ओर बड रही है वेसे वेसे इसका तकनिकी पक्ष तो मजबूत हो रहा है पर भावनात्मक तोर पर कमजोरी आ रही है |उदहारण के तोर पर इस फिल्म की सिनेमेटोग्राफी इतनी खुबसूरत है की कुछ द्रश्यो से आँखे नहीं हटती वही डायलोग इतने कमजोर की कही पर भी तालियों की गूंज सुनाई नहीं देती ।

कुल मिलाकर यह फिल्म देखने के बाद आपको इसकी अगली किस्त यानि हेर्री पॉटर ओर मौत के तोहफे भाग -२ का इंतजार रहेगा जो की हेर्री पॉटर सिरीज़ की खासियत है । फिल्म देखते हुए आप जादुई दुनिया में खो जायेगे ओर उस दुनिया से बाहर निकलने के लिए आप भी कहेगे
"अलहमोरा (जादुई मंत्र जो दरवाजा खोले के लिए कहा जाता है)

Sunday, October 24, 2010

रक्त -चरित्र


"मोहिनी सूरत दिल के खोटे
नाम बड़े और दर्शन छोटे"


पिछले हफ्ते की दो बड़ी फिल्मो को देख कर बस भगवान् दादा का यह गाना ही याद आता है। पिछले हफ्ते रिलीज हुई आक्रोश अच्छी पटकथा होने के बावजूद कमजोर निर्देशन की भेट चढ़ गयी वही इस हफ्ते रीलिज रक्त-चरित्र का हाल भी कुछ एसा ही है या फिर यु कहे की इससे भी बदतर है ।
रक्त -चरित्र में चरित्र नहीं है सिर्फ रक्त ही रक्त है पूरी फिल्म में दिखाई देता है सिर्फ खून ,खून , और खून । पटकथा के नाम पर दो परिवारों की लड़ाई है जो बाद में जातिगत लड़ाई बन जाती है । और पूरी फिल्म में बस मारा मारी होती रहती है । फिल्म देख कर एसा लगता है की मानो ये कोई वृतचित्र( documentry) है जो यह जानकारी देती है की इंसान को कितने तरीको से मारा(क़त्ल किया) जा सकता है ।

फिल्म की शुरवात होती है आनंदपुर गाव की भूमिका से जिसमे वह फैली गुंडागर्दी को background voice के साथबताया जाता है की यह फिल्म सत्य घटना पर आधारित है परन्तु फिल्म में दिखाए गए द्रश्यो से आतिरेक की गंध आती है ।

फिल्म में प्रताप रवि (विवेक ओबेरॉय ) एक पिछड़ी जाती का पड़ा लिखा और समझदार नौजवान है जिसके पिता को राजनेतिक हथकंडो के तहत मार दिया जाता है जिसका बदला प्रताप रवि लेता है फिल्म में शत्रुघ्न सिन्हा एक नेता- अभिनेता के शिवा जी के रोल में है जिसकी एक राजनेतिक पार्टी है आगे जाकर वह प्रताप रवि को raajniti में लाने के लिए प्रस्त्भूमि बनाता है । फिल्म के अंत में प्रताप रवि का वर्चस्व बाद जाता है और फिल्म क्रमश : पर ख़त्म हो जाती है फिर दर्शको से आग्रह किया जाता है की आगे क्या होगा यह जानने के लिए देखिये रक्त चरित्र पार्ट -२ जो १९ november को रिलीज होगी ।

फिल्म में अगर अभिनय की बात करे तब विवेक ओबरी की पीठ थपथपाई जा सकती है ,विवेक के अतिरिक्त अभिमन्यु सिंह (फिल्म में भुक्का रेड्डी )का भी अभिनय काबिले तारीफ है । फिल्म का कैमरा वर्क अच्छा और विविधता लिए है जो पूरी तरह से दक्षिण भारतीय फिल्मो की तरह उपयोग किया गया है ,संपादन ठीक ठाक है ,संगीत पर कोई टिपण्णी न की जाये तो ही बेहतर है। आखिर में कहा जा सकता है की सत्या ,कंपनी जेसी फिल्म देने वाले रामगोपाल वर्मा से लगाईं उम्मीद रक्त -चरित में पूरी नहीं होती दिखाई देती।

अब देखना यह है की पहले से घोषित रक्त-चरित पार्ट कितनी पब्लिक जुटा पाती है। क्योकि दूध का जला छाछ भी फूंक- फूंक कर पीता है

Friday, October 1, 2010

अनजाना-अनजानी :क्यों बनी ये कहानी



ना जानते तुम्हे तो बेहतर ही था|
जान कर अनजान बनना हमारी फितरत नहीं ||

निर्माता साजिद नदियावल और निर्देशक सिद्धार्थ आनंद की फिल्म अनजाना - अनजानी दो विपरीत स्वभाव वाले व्यक्तियों की प्रेम कहानी है | फिल्म में आनंद (रणबीर कपूर और कियाना (प्रियंका चोपड़ा )दोनों आत्महत्या करना चाहते है और दोनों की मुलाकात आत्हत्या की कोसिस करते हुए हो जाती है |दोनो आत्महत्या करने में असफल हो जाते है औरतब दोनों फैसला करते है की २० दिन में अपने सारे काम और शौक पूरा कर के साथ में मरेंगे |बस यही से प्यार पनपने की परीस्थिति शुरू हो जाती है और और हर भारतीय मसाला प्रेम कहानी की तरह एक सुखद अंत पर फिल्म ख़तम हो जाती है |

देखा जाये तो इस फिल्म का कांसेप्ट थोडा हट कर है परन्तु उसे भुनाने में निर्देशक सिद्धार्थ आनंद असफल रहे है |फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी इसकी कमजोर पटकथा और उसमे कसावट की कमी है और रही सही कसर उसका सामान्य निर्देशन पूरा कर देता है |फिल्म का पहला भाग तो पूरी तरह से बोर करता है इंटरवल के बाद फिल्म कुछ गति पकडती है पर बीच बीच में लोकल ट्रेन की भांति रुक जाती है |

अभिनय के मामले में रणबीर और प्रियंका दोनों ने अच्छा काम किया है बल्कि कई द्रश्यो में प्रियंका ने रणबीर को मात भी दी है |फिल्म में यदि कुछ इमोशन ,ड्रामा और कामेडी का तड़का होता तो यह अभिनय और उभर के सामने आता। फिल्म में जो थोडा बहुत हास्य का पुट है भी तो वह सिर्फ द्विअर्थी द्रश्यो से पैदा होता है जिसका असर सीमित रहता है |फिल्म का संपादन और धव्नियांकन औसत दर्जे का है । आश्चर्य की बात है की विशाल -शेखर( म्यूजिक डायरेक्टर ) और सलीम -सुलेमान (बेग-ग्राउंड एसकोर ) जेसी दो बड़ी संगीत जोडियो के होने के बावजूद संगीत में कहने को कुछ खास नहीं है । फिल्म में कुछ संवाद जरुर अच्छे है जो जीवन के मायने पिरोने के लिए लिखे गए है

कुल मिला कर कहा जा सकता है की यदि यह फिल्म पिछले हफ्ते रिलीज हो जाती तब यह उस सप्ताह की एकमात्र फिल्म होती परन्तु इस हफ्ते लगभग २०० करोड़ वाली फिल्म रोबोट के सामने अंजना- अनजानी का प्यार कमाल दिखा पाए इस बात में संदेह है |क्योकि दर्शक मनोरंजन की नब्ज़ पहचानते है | साहब ये पब्लिक है यह सब जानती है |

Friday, September 10, 2010

दबंग



दबंग - जो किसी से ना डरे ; दबंग जो निरंकुश हो ; और दबंग यानि मूछो में सलमान खान बस एसा ही कुछ कहती है फिल्म दबंग । अभिनव कश्यप द्वारा निर्देशित और अरबाज़ एवं मलाईका अरोरा खान द्वारा निर्मित फिल्म दबंग पूरी तरह से सलमान मय है | फिल्म के हर द्रश्य में सिर्फ सल्लू भैया ही नज़र आते है | फिल्म की कहानी का मुख्या पात्र है चुलबुल पांडे( सलमान खान) जिसके परिवार में सौतेले पिता प्रजापति पांडे (विनोद खन्ना) सौतेला भाई मख्खन सिंह (अरबाज़ खान ) और माँ नलिनी (डिम्पल कपाडिया ) है | फिल्म में चुलबुल पांडे अपने पिता और भाई को खास पसंद नहीं करता है ]क्योकि उसके सौतेले पिता अक्सर चुलबुल और उसके भाई मख्खन में भेदभाव करते है | फिल्म में सोनाक्षी सिन्हा रज्जो के किरदार में है जो मिटटी के बर्तन बनती है जिस पर चुलबुल फ़िदा है | फिल्म में आगे चुलबुल को एक भ्रष्ट परन्तु दबंग पुलिस अफसर के रूप में दिखाया है जो किसी की परवाह नहीं करता और एक स्थानीय नेता छेदीलाल से बैर मोल ले लेता है अब पूरी फिल्म चुलबुल पांडे और छेदी सिंह की रजिश पर चलती जाती है । फिल्म के अन्य किरदार में ॐ पूरी ,अनुपम खेर और महेश मांजरेकर जेसे मंझे हुए अभिनेता भी है परन्तु फिल्म में इनका रोल बहुत ही छोटा और संक्षिप्त है । फिल्म में सोनाक्षी सिन्हा बहुत खुबसूरत लगी है पर अभिनय के मामले में कुछ खास नहीं कहा जा सकता । फिल्म की कहानी में कुछ भी ऐसा नहीं है जिससे नया और अलग कहा जा सके । फिल्म का गीत संगीत,फिल्म की मजबूत कड़ी है।
फिल्म में करेक्टर को स्थापित करने में अनुभव सिन्हा असफल रहे है । चुलबुल पांडे खुद को राबिन हुड कहते है परन्तु किसी भी द्रश्य में उन्हें गरीबो की मदद करते नहीं दिखाया जाता वंही फिल्म की पहली रील में ही मख्खन सिंह को मंद बुद्धि कह दिया जाता है, परन्तु पूरी फिल्म में उसकी हरकते एक सीधे और जक्क्हद व्यक्ति की है, मंद बुद्धि की नहीं ।
कुल मिला कर पूरी फिल्म में दिखाई देते है सिर्फ सलमान के एक्शन सीन ,बिना एक्सप्रेशन के डायलाग, और अजीब सी हरकते जो दर्शको का भरपूर मनोरंजन तो करते है पर दिमाग का कोई उपयोग नहीं करने देते| इसलिए थियेटर हाल में घुसने से पहले आप अपने दिमाग को छुटी पर भेज दे और फिर आराम से फिल्म देखे ;फिल्म में मजा आएगा ।

Sunday, September 5, 2010

वी आर फॅमिली "एक साफ़ सुथरा मनोरंजन "


सिद्धार्थ मल्होत्रा द्वारा निर्देशित और करण जौहर द्वारा निर्मित बहुप्रतीक्षित फिल्म "वी आर फॅमिली "इस हफ्ते रीलिज हुई । वी आर फेमेली होलीवुड की फिल्म 'स्टेप्मोम' का भारतीय संस्करण है| सबसे पहले तो करण जौहर बधाई के पात्र है की उन्होंने विधिवत किसी फिल्म होलीवुड फिल्म के राईट खरीद कर उसका हिंदी संस्करण बनाया है। कहानी एक परिवार की है जिसमे अमन( अर्जुन रामपाल ) माया (काजोल) और उनके बच्चे अलिया (अंचल मंजुल) अंकुश(नोमिनाथ गिन्सबर्ग) और अंजलि (दिया सोनेचा ) है । कहानी में अमन और माया का तीन साल पहले तलाक हो चूका है । और दोनों अलग रहते है । श्रेया ( करीना कपूर) अमन की गर्लफ्रेंड है जिसकी दोस्ती अमन अपने बच्चो से करवाना चाहता है । फिल्म में आगे बनते बिगड़ते रिश्तो का जाल बुनता जाता है और फिल्म आगे बड़ती जाती है । फिल्म करण जौहर के खास स्टाइल को फालो करती है जिसमे इमोशन , ट्रेजेडी , ड्रामा और रिश्तो के उतर चड़ाव साफ़ नजर आते है ।
फिल्म के हर किरदार ने अपने रोल को बखूबी जिया है । अर्जुन रामपाल , करीना कपूर , काजोल तीनो ने बेहतरीन अभिनय किया है ,करीना और काजोल दोनों ने अपने अपने रोल को बखूभी निभाया है , कई बार तय करना मुश्किल हो जाता है की दोनों में से कोन बेहतर है। तीनो बाल कलाकारों ने भी अपने नपे तुले अभिनय की छाप छोड़ी है । यह पूरी तरह से पारिवारिक फिल्म है । फिल्म के अन्य पहलुओ की बात करे तब इस फिल्म की सबसे कमजोरे कड़ी है फिल्म के डायलाग, फिल्म के डायलाग हिग्लिश (हिंदी+इंग्लिश) में लिखे गए है जो हिंदी भाषी दर्शको के गले नहीं उतरते। फिल्म के कई द्रश्य ऐसे है जो दर्शको को आंसू बहाने पर मजबूर कर सकते थे परन्तु वहा पर डायलाग का सपोर्ट न होने पर ये आंसू आँख तक आ कर रुक जाते है । उदहारण के लिए फिल्म के एक द्रश्य में काजोल अपनी बेटी से कहती है " एक दिन तुम भी शादी करोगी एंड डेट डे यु अर डी मोस्ट ब्यूटीफुल ब्राइड इन डी वर्ल्ड " अब यहाँ पर यह डायलाग यूँ भी कहा जा सकता था की "तब तुम दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत दुल्हन होगी " ।

फिल्म के गीत -संगीत की अगर बात की जाए तब शंकर-एहसान- लाय ने औसत श्रेणी का संगीत दिया है । दीपा मेहता का संपादन भी ठीक ठाकहै ।
करण जोहर ने यह फिल्म पूरी तरह से मल्टीप्लेक्स के दर्शको और प्रवासी भारतीयों को ध्यान में रख कर बनायीं है । परन्तु वह यह बात भूल गए की जिस प्रबुद्ध वर्ग को टारगेट करके उन्होंने फिल्म का निर्माण किया है वह वर्ग काफी हद तक "स्टेप्मोम" से परिचित है और वह दोनों फिल्मो की तुलना अवश्य करेगा, अब यदि करण जोहर अपने दर्शक वर्ग में छोटे शहर और कस्बो को भी शामिल कर लेंते और अपनी फिल्म की भाषा हिंगलिश न रखते हुए हिंदी रखते तब उन्हें शायद एक ज्यादा बड़ा दर्शक वर्ग मिलता और ज्यादा फायदा भी| क्योंकी यह वर्ग न तो "स्टेप मोम'' को जानता है न ही उसकी कहानी को तब उनके लिए "वी आर फॅमिली " पूरी तरह से नयी कहानी है |

अंत में यह कहा जा सकता है की " वी आर फॅमिली " एक साफ़ सुथरी और मनोरंजक फिल्म है जिससे पुरे परिवार के साथ बैठकर देखा जा सकता है |

Saturday, August 21, 2010

"लफंगे परिंदे " प्रदीप सरकार का एक औसत प्रयास


फिल्म 'लफंगे परिंदे' यशराज बेनर द्वारा निर्मित और प्रदीप सरकार द्वारा निर्देशित एक हल्की-फुल्की मनोरंजन फिल्म है | यह मूलतः एक प्रेम कहानी है | फिल्म में नंदू(नील नितिन मुकेश ) एक बोक्सर है जो आंख पर पट्टी बांध कर सिर्फ आवाज सुन कर बोक्सिंग करता है और एक ही वार में अपने प्रतिद्वंदी को चित कर देता है| वंही पिंकी(दीपिका पादुकोण ) शापिंग माल में काम करने वाली एक लड़की है जो स्केट -डांसिंग के जरिये नाम कमाना चाहती है |एक हादसे में पिंकी की आँखों की रौशनी चली जाती है तब नंदू पिंकी की हालत के लिए खुद को जिम्मेदार मानता है , वह पिंकी को आवाज के जरिये जीना सिखाता है और उसके सपने को पूरा करने में उसकी मदद करता है|बस फिर दोनों के बीच प्यार पनपने लगता है जो फिल्म को क्लायमेक्स तक ले जाता है |

एक अच्छा कांसेप्ट होने के बावजूद फिल्म की पटकथा कमजोर है |अभिनय के मामले में दीपिका पादुकोण का काम काबिलेतारीफ है , वंही नील नितिन मुकेश थोड़े कमजोर नजर आये है | अभिनय के तराजू पर दर्शको को पियूष मिश्रा(गुलाल फेम ) से काफी उम्मीदे थी ,परन्तु निर्देशक ने न जाने क्या सोच कर पियूष मिश्रा की अदाकारी का उपयोग ही नहीं किया | फिल्म का संगीत अवश्य कर्णप्रिय है ,स्वानंद किरकिरे द्वारा लिखे गए गानों के बोल भी अच्छे बन पड़े है |प्रदीप सरकार की पहली दोनों फिल्मो ( परिणीता और लगा चुनरी में दाग ) के मुकाबले 'लफंगे परिंदे' कमतर ही लगती है|फिल्म में संपादन और बाकि पक्ष कहानी के मुताबिक ठीक -ठाक कहे जा सकते है |

कुल मिलकर लफंगे परिंदे एक औसत फिल्म है जिसे आराम से पोपकोर्न खाते हुए देखा जा सकता है परन्तु अब
देखना यह है की एक हफ्ते पहले रिलीज़ हुई आमिर खान प्रोडक्शन की 'पीपली लाइव ' 'लफंगे परिंदे' की टिकिट खिड़की को कितना प्रभावित करती है |


आपके सुझावों का इंतजार रहेगा ............................................................लकुलीश शर्मा

Sunday, August 15, 2010

"पीपली लाइव" मीडिया की थोथी प्रस्तुतियों को करारा तमाचा


" स्वानों को मिलता वस्त्र दूध , भूखे बालक अकुलाते है
माँ की छाती से चिपक ठिठुर जाड़े की रात बिताते है
युवती के श्रद्धा वसन बेच जहाँ ब्याज चुकाए जाते है
मालिक वंहा तेल- फफुलो पर पानी सा द्रव्य बहाते है "


रामधारी सिंह ' दिनकर ' की यह पंक्तिया करीबन ७० वर्ष पुरानी है पर भारतीय ग्रामीण परिवेश में इसकी प्रासंगिकता जस की तस है| इस ग्रामीण दुर्दशा की ओर ध्यान आकर्षण का सफलतम प्रयास निर्माता- अमीर खान और निर्देशक- अनुषा रिज़वी ने फिल्म 'पीपली लाइव' में बखूबी किया है
फिल्म कहानी है नत्था (ओमकार दास) और बुधिया (रघुवीर यादव) नामक दो भाइयो की जिनकी जमीन क़र्ज़ न चूका पाने से नीलाम होने की नोबत पर आ जाती है | ऐसे में नत्था इस आशा में आत्म-हत्या करने का फैसला ले लेता है की सरकार उसके परिवार वालो को मुआवजा देगी | उसकी यह बात मीडिया में फैल जाती है और उसकी जिन्दगी प्राइम-टाइम टेलीकास्ट और ब्रेकिंग न्यूज़ का हिस्सा बन जाती है, बस यही से शुरू होता है टी.वी. चैनलों के टी.आर.पी(टेलिविज़न रेटिंग पॉइंट ) का गन्दा खेल , राजनीतिक अखाड़ेबाज़ी की नोटंकी और शासन के भीतर का छुपा गन्दा सच जो शर्मनाक तरीके से सामने आता है| इन सब नौटंकियो में नत्था की परेशानिया लुप्त हो कर रह जाती है ।

फिल्म में किसानो की आर्थिक स्थिति ,इलेक्ट्रोनिक मीडिया और आज की सड़ी-गली राजनीति पर करारा व्यंग्य किया गया है| ऐसा लगता है मानो मुंशी प्रेम चन्द्र की कहानी को हरिशंकर परसाई के व्यंग्य में परोसा गया हो । पात्रो के नाम हरिया , महतो,बुधिया आदि मुंशी प्रेमचन्द्र की कहानियो की याद दिलाते है |फिल्म में अपशब्दों के प्रयोग के कारण फिल्म को व्यसक प्रमाण पत्र ( A certificate) दिया गया है | ये अपशब्द सिर्फ हास्य ही पैदा नहीं करते बल्कि कुछ संवादों पर यह इतने सटीक बैठे है की ऐसा लगता है मानो इससे अच्छा यहाँ कुछ हो ही नहीं सकता था । अभिनय के तराजू पर हर पात्र ने खुद को टक्कर का साबित किया है |

फिल्म में नत्था की हालत की आंशिक जिम्मेदारी आम आदमी पर भी डाली गयी है| जो सिर्फ मनोरंजन और सनसनी पर ही भरोसा करता है और प्रतिस्पर्धा में खड़े न्यूज़ चेनल को इस बात के लिए विवश करता है की वह लगातार सिर्फ मनोरंजन ही परोसता रहे ;चाहे उसका परिणाम कुछ भी हो । तो अब जब आप पीपली लाइव देखे तो अपने आप से यह सवाल जरुर करियेगा की निर्देशक- अनुषा रिज़वी की इस बात में कितनी सच्चाई है |


.....................................आप के सुझावों का इंतजार रहेगा ..........लकुलीश शर्मा

Friday, August 6, 2010

आयशा


बचपन में एक कहानी सुनी थी , की जब मुर्गी के अंडे से चूजा निकलता है तब वो अंडा तोड़ने के लिए छटपटाता है ,अपने हाथ पैर चलता है और बड़ी मुश्किल और जदोजेहत से बहार निकलता है , पर यही मुश्किले उसकी हड्डियों को और पंखो को मजबूती देती है , एक बार एक बच्चे से चूजे की छटपटाहट देखी नहीं गयी तब उसने अंडे को तोड़ कर चूजे को बहार निकल दिया ;कुछ ही देर बाद वह चूजा मर गया |कुछ ऐसाही मेसेज देने की कोशिश की है निर्देशक राजश्री ओझा ने अपनी फिल्म "आयशा" के जरिये|


फिल्म में आयशा का मुख्या किरदार निभाया है सोनम कपूर ने | फिल्म की कहानी एक ऊँचे घराने की लड़की आयशा के आस पास घुमती है | आयशा एक खुशमिजाज लड़की है जिसे लोगो की मदद करना पसंद है , उससे मेच- मेकिंग करने में बहुत मजा आता है | उसे लगता है की वह जानती है की किसके लिए क्या सही है ,और यही सोच कर वह अपनी सहेली शेफाली (अमृता पूरी ) के लिए एक अच्छा और आमिर लड़का खोजने का जिम्मा में लेती है |उसकी यह बाते अर्जुन (अभय देओल ) को बिलकुल पसंद नही जो उसका पडोसी और दोस्त है वह हर वक़्त आयशा( सोनम कपूर ) को इस बात के लिए समझाता है वह दुसरो की जिन्दगी और फैसले में दखल न दे पर आयशा नहीं मानती और धीरे धीरे करके उसके फैसले गलत होते जाते है और दोस्त उससे दूर होते जाते है ; फिल्म में आगे आयशा की जिन्दगी और उसकी सोच का दायरा बुना गया है |फिल्म का क्लायमेक्स दोस्तों को मिलाने और सब की जोड़ी बनाने में पूरा होता है |


फिल्म "आयशा " जेन आस्तीन के उपन्यास " एम्मा " पर आधारित है |फिल्म की कहानी दर्शको को सोचने का मोका नहीं देती, बस जो हो रहा है उससे देखते रहे ,क्योकि पूरी फिल्म के कोई लाजिक रखा ही नहीं गया दो प्रेमी एक दुसरे को छोड़ कर किसी और की तरफ आकर्षित हो रहे है पर क्यों ? इसका कोई ठोस कारण नहीं है| पूरी फिल्म स्लो चलती है फिल्म में उत्सुकता और कोतुहल बनाये रखने जेसी कोई खास बात नहीं है, हां पर यदि अभिनय की बात करे तो फिल्म के हर किरदार का अभिनय अच्छा है |फिल्म में अभय देओल ने अपनी खास इमेज को बरक़रार रखा है | फिल्म 'आयशा' के गाने अच्छे है जों कम से कम कुछ मनोरजन करते है फिल्म का टाइटल ट्रेक 'आयशा' और फिर मिट्ठे -मीठे बोल दिल को लुभाते है |

 कुल मिलकर यह कहा जा सकता है की यह फिल्म  सोनम कपूर के प्रसंशको  को तो शायद लुभा ले पर बॉक्स ऑफिस पर कोई खास प्रभाव नहीं डालने वाली |


Friday, July 30, 2010

वनस अपान अ टाइम इन मुंबई


"वन्स अपान टाइम इन मुंबई " बालाजी टेलीफिल्म्स द्वारा निर्मित १९७० के दशक की मुंबई की कहानी है | यहफिल्म मुख्यतह: मुंबई ( तत्कालीन बॉम्बे ) के स्मगलर हाजी मस्तान और दाऊद इब्राहीम पर आधारित है | फिल्म की कहानी की शुरवात सुल्तान ( अजय देवगन ) से होती है और अंत शोएब ( इमरान हाश्मी ) पर |इस फिल्म की पटकथा और डायलाग रजत अरोरा ने लिखे है, फिल्म की पटकथा में कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे देख कर "वाह" किया जा सके |

फिल्म की कहानी काफी स्लो है और पूरी फिल्म नीरस प्रतीत होती है , फिल्म के शुरवाती द्रश्यो में सुल्तान(अजय देवगन) और रेहाना ( कंगना रानावत ) की प्रेम कहानी लोगो को बांध कर रखती है पर इसके बाद फिल्म मनोरंजन के ट्रेक से उतर जाती है | फिल्म को देख रहा दर्शक फिल्म के पहले सीन से क्लाइमेक्स तक यही सोचता रहता है की आखिर फिल्म का उद्देश्य क्या है ?


फिल्ममें अजय देवगन , कंगना रानावत , रणदीप हुड्डा का अभिनय काबिले तारीफ है पर इस मामले में इमरान हाश्मी और प्राची देसाई पिछड़ गए है | गीत संगीत की द्रष्टि से फिल्म में प्रीतम और इशाद कामिल ( गीतकार ) ने अच्छा काम किया है , फिल्म के "पी लूँ " "पर्दा " इत्यादि गाने काफी अच्छे बनपड़े है |

फिल्म में कास्टुयुम और सिनेमेटोग्राफी के जरिये १९७० के दशक का द्रश्य दिखने की कोशिश की गयी है जिसमे असीम मिश्रा( सिनेमेटोग्राफर ) सफल भी हुए है |फिल्म के निर्देशन में मिलन लथुरा ने कोई खास प्रभाव नहीं डालाहै |

कुल मिला कर यह कहा जा सकता है की " वन्स अपान टाइम इन मुंबई " एक फीचर फिल्म कम और एक ड्रामा - डाक्यूमेंट्री ज्यादा लगती है जो एक अपूर्ण अंत पर ख़त्म हो जाती है |