Tuesday, July 12, 2011

मर्डर-2 एक औसत प्रस्तुती


एक सस्पेन्ड पुलिस आफिसर जो नशे का धंधा करता है,वसूली करता है,एक हाॅट और सेक्सी माडॅल जिसका काम सिर्फ कम कपडे पहनना है,और एक सनकी हत्यारा जिसके लिए लडकीयों को मारना इतना ही आसान है जितना की सब्जी काटना । इन दो लाइनो की कहानी है फिल्म मर्डर-2 । फिल्म की शुरुआत में एक तड.कता भड.कता गाना और एक रहस्यमय खून। निर्देशक मोहित सूरी और निर्माता महेश भटृ की मर्डर -2 की पहली रील से यह लगता है कि अगले 2 घंटे का सफर रोमाचंकारी रहने वाला है पर यह भरोसा ज्यादा देर तक टिका नही रहता क्योकि कुछ ही समय बाद फिल्म अपनी पकड. खोने लगती है।

फिल्म में सेक्स मसाला और उत्तेजक द्रश्य तो भरपूर डाले जाता है पर इन सब का फिल्म से कोई लेना देना नही है। अगर ये द्रश्य पूरी तरह से हटा दिये जाए तो फिल्म की कहानी में कोइ फर्क नही पडने वाला ।


फिल्म का निर्देशन ठीक -ठाक है पर पटकथा पूरी तरह से ढीली -ढाली है। फिल्म में कुछ द्रश्यो को देखकर निर्देशक (मोहित सुरी ) और पटकथा लेखक (शगुक्ता रफिक ) की समझ पर हॅसी आती है फिल्न्म में हत्यारे का घर ढूढने में अर्जुन(इमरान हाश्मी) को पूरी रात और फिल्म के समय के हिसाब से पुरा 1 घंटा लग जाता है जबकि उसे मालुम है कि हत्यारा किस इलाके में रहता है वह हत्यारे के घर के सामने से गुजर भी चुका है उसका नेटर्वक भी दमदार है पर फिर भी वह बस इघर से उघर घूमे जा रहा है। वह ईश्वर से खफा है पर क्यो ? । हत्यारा ऐसा क्यों है ? उसकी कहानी क्या है? अर्जुन ने पुलिस की नौकरी क्यों छोडी उसकी क्या कहानी है? इन सब सवालो का फिल्म में कोई जवाब नही है।

फिल्म कंे दुसरी खासियत की बात की जाए तो फिल्म का गीत - संगीत पक्ष उम्दा है ै। फिल्म के अच्छे पक्ष में कैमरा टैक्नीक और सिनेमेट्ोग्राफी को लिया जा सकता है ।कुल मिलाकर यही फिल्म की जान है। अभिनय के बारे मे सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि प्रशांत नारायण ने धीरज पांडे के किरदार में जानदार काम किया है ,बाकि इमरान को तो एक ही तरह का अभिनय आता है जो उन्होने यहां भी किया है जिसमें जेकलिन ने भी अपनी मादक अदाओं से पुरी तरह से साथ दिया है।


कुल मिलाकर फिल्म सिर्फ इमरान प्रेमी दर्शको लुभाने का काम करती है बाकि इसे औसत दर्जे का ही प्रस्तुतीकरण कहा जा सकता है । परन्तु मर्डर नाम से इस साधारण कहानी की किस्मत बदल सकती है क्योकि आजकल सिक्वेल का जमाना है। और भीगे होठ तेरे इस गाने का सुरुर अब भी कायम है जो शायद मर्डर-2 की नैया भी पार लगा दे।

Saturday, July 2, 2011

आमिर के प्रयोग क़ी नयी खेप "देल्ही-बेली "





तीन आम शहरी लड.के जो एक साथ रहतें है।रोज सुबह अपने काम पर जाते हैं। पारम्परिक लडको की तरह उनका एक गन्दा सा कमरा होता है। दरवाजा खोलने से लेकर सुबह जल्दी उठकर पानी भरने के लिए काम बाटे जाते है और सारे काम एक दुसरे पर टाले जाते है। यानि आम लडको टाईप जिन्दगी।इस आम जिन्दगी मे एक दिन भुचाल तब आ जाता है जब ये सब डान के चक्कर में फँस जाते है। इस सिचुएशन को खुलेपन और चुटिले अंदाज में पेश किया है निर्माता अमीर खान और निर्देशक अभिनव देव ने अपनी फिल्म देल्ही बेली में |

फिल्म में तोशी(इमरान खान ) अरुप (वीर दास ) नितिन (कुनाल रायॅ कपूर ) तीनो रुम-मेट है।तोशी और नितिन एक न्युज पेपर में काम करतें है वंही अरुप एक एनिमेशन कम्पनी में कार्टुनिस्ट है। सोनिया(शहनाज) तोशी की गर्लफ्रेड. है।वह तोशी को एक पार्सल एक पते तक पहुँचाने को देती है जो उसे उसकी एक दोस्त ने करने को कहा था।तोशी वह पार्सल नितिन को देता है और चुकिं नितिन का पेट खराब हो जाता है इसलिए वह पार्सल अरुप को देता है। अरुप वह पार्सल उसके पते पर डिलिवर कर देता है बस यही पर एक छोटी सी चुक हो जाती है जिसके कारण माफिया और फिर पुलिस इन तीनो दोस्तो के पीछे पड। जाती है।और फिर पूरी फिल्म भाग डिके बोस भाग की लाइनो पर चलती जाती है।

फिल्म का निर्देशन उम्दा है फिल्म की गति कहीं पर भी टुटती नजर नही आती है निर्देशक अभिनव देव ने फिल्म को कहीं भी लीक से हटने नही दिया है ।सिनेमेटोग्राफी ने दिल्ली के माहोल को पुरी तरह जिंदा करने की कोशिश की है कोई भी फ्रेम बेकार की चीजों से लदी दिखाई नही देती । एडिटिंग ने निर्देशन और सिनेमेटोग्राफि की बची कुची कसर पुरी कर दी है।अभिनय के तराजु पर इमरान खान कमजोर दिखे है वहीं विजय राज(डान) और वीर दास का पलड़ा थोडा भारी है बाकि कलाकारो का काम भी औसत की श्रेणी मे रखा जाता है। संगीत पक्ष उम्दा है ,भाग डी के बोस ,चुडैल, स्विटी तेरा प्यार ,नगद वाले डिस्को उधार वाले खिसको जैसे गाने सिचुएशन पर पुरी तरह फिट नजर आते है।

इस पूरी फिल्म की खासियत है इसका प्रस्तुतिकरण, फिल्म के डायलाग में हद से ज्यादा खुलापन है पर ये आज के दौर की वास्तविकता है । हाँ यह कहा जा सकता है कि इस तरह के शब्दो का प्रयोग सिनेमा जैसे विस्तृत माध्यम में किया जाना उचित नही है पर इस बहस पर सबके अपने अपने तर्क हो सकतें है । यंहा पर यह ध्यान रखना जरुरी है कि यह कोई पारिवारिक फिल्म नही है। इसलिए इसे देखना व्यक्तिगत पंसद का विषय है।वैसे भी जिस फिल्म के प्रमोशन में ही अगर निर्माता निर्देशक खुद यह स्वीकार कर रहे हो कि यह फिल्म बच्चे न देखें तब यह तो समझा जा सकता है कि इस फिल्म के विषय और भाषा में कुछ तो गोलमाल है|
आपके सुझाव के इंतजार में ..................................लकुलीश शर्मा