Saturday, September 3, 2011

ज्वलंत मुद्दों को उठाती फिल्म "बोल"


"बोल"  ,एक  कहानी  जो  साहस  है  औरत  का  , आइना  है पाकिस्तानी  हालात  का , और  एक मौका  है  यह  सोचने  का की  क्या  कत्ल करना  ही  गुनाह  है पैदा  करना नहीं  .पाकिस्तानी डायरेक्टर  शोएब  मंसूर   के  बेहतरीन  निर्देशन  से  सजी  ये  फिल्म  अपने  साथ  कई  मुद्दे  उठाती  है . 

यह  कहानी है जानिब  (हुमेमा  मालिक ) और उसके  परिवार  की जिसमे  7 बहने  और एक नपुंसक  भाई   है .जानिब के अब्बा   हाकिम  नवाबुदुला  (मंजर  सहबाई ) पुस्तेनी  राजवैध  है जो की शरणार्थी  के टूर  पर  दिल्ली   से आकर  कराची  में  बस  गए  .कहनी  की शुरुवात  होती  है जानिब  की फांसी से जहा  मुस्तफा (आतिफ  असलम  ) जानिब को  ये समझाता  है की उसे  अपनी  बात  एक बार  तो  कहना   चाहिए  और जानिब अपनी फांसी पर एक प्रेस  कांफ्रेंस  करने  की इज्ज़ाज़त मांगती  है.प्रेस कांफ्रेंस में जानिब बताती  है कि केसे  हालत  ने  उससे कातिल  बनाया  .वो  ढेर  सरे  सवालो  का पुलिंदा  छोडती  है दर्शक के ज़ेहन में  कि आखिर  क्यों  हम  धर्म  के नाम  पर ,इज्ज़त  के नाम पर और झूटी  शान  के नाम पर खुद  को और अपने घर  को बर्बाद  कर  लेते  है .

फिल्म कि पटकथा में कसावट है | गीतों में ताजगी है संगीत औसत श्रेणी का है और अभिनय वास्तविकता को लिए हुए पर तकनिकी तौर पर फिल्म कमज़ोर है.सिनेमेटोग्राफी ठीक कि श्रेणी में रखी जा सकती है. द्रश्यओ में विविधता कि कमी लगती है. 

फिल्म में  मुद्दों  को बहुत  ही लाज़वाब  तरीके  से उठाया  गया  है चाहे  वो मुद्दा  इस्लामिक  कटरपंती  खयालो  का हो  ,बेटे  कि चाहत  का ,मर्सी  किलिंग  का ,या  फिर  आज़ाद  खयालो का  .यह  फिल्म सिर्फ  पाकिस्तान  कि कहानी नही  है  बल्कि  यह हिंदुस्तान  के एक वर्ग  को भी  कटघरे  में खड़ा  करती  है जो बेटे की  लालच  में लडकियों   की लाइन  लगा  देते  है और औरत को सिर्फ बच्चा  जनने की मशीन  बना  देते है .

निर्देशक   शोइब  मंसूर की यह दूसरी  फिल्म है पर इतने  नाज़ुक  मुद्दों को उन्होंने  जिस  सम्वेंदंशिलता  से परोसा  है वो काबिले  तारीफ  है .यह फिल्म एक शानदार  मौका है पाकिस्तान को जानने  का    ,आतंकवाद  से  अलग  हटकर  उसकी  आम  जिंदगी  में  झाँकने  का और  उन  लोगो  को  चुप  करने  का   जो  कहते  है  की  आज  कल  अच्छी फिल्मे  नहीं  बनती  जिनसे  समाज  को दिशा  मिलती  हो  इस  फिल्म  में बुरी  बात  है तो  सिर्फ  एक  की  ये  बोडीगाड के  साथ  रिलीज़  हो गई .और जिस तरह  एक बड़ी  मछली  दूसरी  छोटी  मछली को निगल  जाती  है उसी   तरह एक खेल  तमाशे  की फिल्म एक सार्थक  फिल्म को टिकिट  खिड़की  पर  निगल रही  है .
                        आपके सुझावों के इंतजार में .......... लकुलीश शर्मा ( मात्राओ की गलती के लिए क्षमा करे वो वेब साईट की कुछ दिक्कत है )