Thursday, April 19, 2012

दान

सुबह - सुबह उसके छोटे से ठेले से उठती पोहे और जलेबी की खुशबु बरबस किसी भी भूखे पेट को अपनी और खींच लेने के काबिल थी और  यही मेरे साथ भी हुआ। मै चुम्बक की तरह उस दुकान की और खीच गया। दुकान पर थी नाश्ता करने वालो की भीड़ और दुकानदार का ठेठ मारवाड़ी अंदाज । आडर देने वाले कहते भिया इक पोए -जलेबी देना और दुकानदार कहता लो सेठ अपने  पोहे-जलेबी  हां महाराज आपको क्या दू । दो अलग अलग लहजे और बोली के शब्द मिलकर मीठी जलेबी और तीखे पोहे का काम कर रहे थे । मेने भी मारवाड़ी भैया से  कहा 'दादा इक पोहा कचोरी देना और ५० ग्राम जलेबी'।अभी मेने पोहे का पहला निवाला खाया ही था की  तभी वंहा पर इक अधेड़ उम्र की महिला आई और हाथ फैला कर भीख मांगने लगी ,उम्र होगी यही कोई ५० -६० साल, चेहरे पर दयनीयता और आँखों में सूनापन।उसके आते ही भीड़ थोड़ी कटने लगी कोई भी उसकी और नहीं देख रहा था और न ही उसकी मांग पर ध्यान दे रहा था । वो मेरे पास आई और बोलने लगी राजा बाबु कल से कुछ नहीं खाया कुछ खिला दे बेटा , भगवान तुझे तरक्की दे , तेरी छमक छमक लाड़ी आये बेटा ,कुछ नहीं तो एक चाय ही पिला दे । वेसे में भिखारियों को भीख देने में ज्यादा यकीं नहीं रखता पर उसकी हालात  देख मेने दुकानदार से  कहा भैया इनको एक पोहा दे देना दुकानदार ने मेरी और देखा और इस तरह मुंह बनाया जैसे  कह रहा हो कि बाबु जी इस औरत का रोज का ही काम है , पर मेने उसकी बात अनसुनी कर दी । मुझे  देख कर कुछ और लोगो ने १-२ रूपए के  खुल्ले पैसे उसे दे दिए । वो पोहे लेकर एक और जमीन पर बैठ गयी और खाने लगी और मुझे देख कर मुस्कुराने लगी ।मुझे यूँ  लगने लगा जेसे मैंने कोई महान काम कर दिया हो ,बचपन में पड़ी नैतिक शिक्षा की किताब के पन्ने मेरे आस पास से गुजरने लगे, मुझे लगा के मै  धर्मात्मा हूँ, दानी हूँ, मुझमे अब भी इंसानियत बाकि है, मेने अपने हिस्से में से किसी और को दिया ।यह सब सोच कर मेरी छाती फूलने लगी थी की तभी एक कुत्ता वहां  आ गया और एक और खड़े होकर हसरत से पूंछ हिलाने लगा वहां खड़े लोगो को घूरने लगा। मै कुत्ते कि हरकतों को देख रहा था कि  तभी पुचकारने की एक आवाज आई  और मेने देखा की वह अधेड़ महिला अपनी प्लेट में से कुछ पोहे कुत्ते के लिए निकाल रही थी ।

अब मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि दानी कौन है और इंसानियत कहाँ बची है ।

No comments:

Post a Comment